

बिहार के गाँवों में कायस्थ समाज के लोग एक कहावत कहते है कि ‘जिस गाँव में भूमिहार रहता है उस गाँव में लाला नहीं रहता है’ इस कहावत के पीछे बौद्धिक जगत में प्रभावी इन दोनों जातियों की प्रतिद्वंदविता को समझा जा सकता है.


कायस्थ पेशेवर रूप से शुरू से ही लिखने-पढ़ने वाली जाति रही है. कायस्थों भारत में को विशुद्ध रूप से एकमात्र बौद्धिक जाति कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगा. इनके देवता चित्रगुप्त जयंती के अवसर पर ये कलम-दवात की पूजा करते है.


मध्यकालीन भारत, ब्रिटिश काल और इंदिरा युग तक ये पूर्ण रूप से कलम-बुद्धि की ही कमाई खाते रहे है. ब्रिटिश काल में ये 54 प्रतिशत सरकारी पदों पर काबिज थे. ब्रिटिश काल ख़त्म होने के बाद भी लगभग ये 35 फीसदी पदों पर हावी थे. किन्तु अब इन्हें ब्राम्हणों, भूमिहारों और राजपूतों से चुनौति मिलने लगी थी. सतर के दशक आते-आते ब्राम्हण और भूमिहार बिहार की सरकारी मशीनरी में कायस्थों को बराबरी का टक्कर दे रहे थे. बिहार के प्रशासनिक हलके में कायस्थों का अवसान शुरू हो चुका था.

धीरे-धीरे इनका दबदबा ख़त्म हो गया. मंडल युग शुरू होने तक ये मात्र 5 प्रतिशत सरकारी पदों पर ही काबिज रह गये थे. चूंकि पढाई-लिखाई का मामला होने के कारण ब्राम्हणों, भूमिहारों को लम्बा समय लगा. लेकिन राजनीति में कायस्थों को हाशिये पर डालने का काम आजादी के बाद ही शुरू हो चुका था.
सवर्णों द्वारा ही कायस्थ को हाशिए पर डालने की राजनीति
श्रीकृष्ण सिंह को बिहार की राजनीति में शीर्ष पर बनाये रखने के लिए सहजानंद सरस्वती जैसे भूमिहारों के संगठन किसान महासभा का पुरजोर समर्थन था. यूँ कहें कि कांग्रेस में उनके प्रतिद्वंदी माने जाने वाले राजपूत अनुग्रह नारायण सिंह के दबदबे को साधने के लिए भूमिहार किसानों के नेता सहजानंद सरस्वती जैसे लोग दबाव देने-समर्थन देने की नीति पर खड़े थे.
1957 के चुनाव में कायस्थ केबी सहाय और भूमिहार महेश प्रसाद सिन्हा के हार के बाद श्रीकृष्ण सिंह ने महेश प्रसाद सिन्हा को खादी बोर्ड का चेयरमैन बना दिया, लेकिन केबी सहाय को कुछ नहीं बनाया. नतीजतन 1957 में जयप्रकाश नारायण ने बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह पर ‘भूमिहार राज’ चलाने का आरोप लगाया था. जेपी ने तत्कालीन सीएम को पत्र लिखा-‘यू हैव टर्न्ड बिहार इन टू भूमिहार राज, तो जवाब भी श्रीकृष्ण सिंह ने उन्हें बेहद तीखा लिखा-‘यू आर गाइडेड बाई कदमकुआं ब्रेन ट्रस्ट.’ कदमकुआं ब्रेन ट्रस्ट से अभिप्राय कायस्थों के जातीय सम्मेलनों से था.
यह तीखापन हर युग में रहा है. वाजपेयी युग में पटना संसदीय क्षेत्र से टिकट के सवाल पर शत्रुघ्न सिन्हा की चर्चा चल रही थी तो भूमिहार नेता सीपी ठाकुर की भी दावेदारी थी. ठाकुर द्वारा कथित रूप से सिन्हा को ‘नचनिया-बजनिया’ कहे जाने के बाद कायस्थों में भारी नाराजगी की चर्चा आम रही.
दिलचस्प बात यह है कि कायस्थों का वर्गीकरण वैश्य जाति में किया गया है. इन्हें क्षत्रिय का दर्जा भी प्राप्त नहीं हुआ है. ये ब्रिटिशकाल में क्षत्रिय होने के दावे को भी कानूनी लड़ाई में हार चुके है. लेकिन मंडल लहर के बाद धीरे-धीरे कायस्थ पूरी तरह से संघ के पाले में चले गये.
जबकि सवर्ण की तीन जातियों भूमिहार, ब्राम्हण, राजपूत की तरह कायस्थों का स्वभाव कभी भी सामंती मानसिकता का नहीं रहा है. ये न तो मूलतः शासक रहे और न ही लाठी के दम पर क्रूर जमींदार रहे. इनके घर में कहारों का आना-जाना आम रहा है. कायस्थों के कहारों से शादियों के ढेरों मामले हर इलाके में मिल जाएंगे. जमीन-जायदाद का पट्टे पर देना हो या बिक्री करना हो, पिछड़ी जातियों के लोग ही इनके लिए मुफीद रहे है.
अर्थात कायस्थ, शुरू से ही ‘सोशल जस्टिस’ की समर्थक जाति रही है. इसे न तो जमीन कब्ज़ा करना है और न ही ठेकेदारी के लिए गोली चलाना है. कायस्थ समाज के लोगों ने अपने बुद्धि-विवेक से ही इतनी प्रगति की है कि इसका उदाहरण खोजने से हिन्दुओं में तो नही ही मिलता. बुद्धिमता और उदारता के मामले में इन्हें हिन्दुओं का ‘पारसी समुदाय’ कहा जा सकता है. हालांकि कायस्थों में भी अब गरीबी दिख रहा है, ऐसा नही है कि हर कायस्थ समृद्ध ही है. कायस्थों में परंपरागत ब्राम्हण, भूमिहार, राजपूत की अपेक्षा भेद-भाव करने की आदत बहुत ही कम है.
दरअसल आजादी के पहले बिहार में लगभग 9000 कायस्थ जमींदार थे, भूमिहार लगभग 35000, राजपूत 30000, ब्राम्हण 19000, कुर्मी 5000, अहीर 1200 कोयरी 72 थे (संख्या लगभग में है). समय के साथ ये अवसरों की तलाश में सबसे अधिक और सबसे पहले कायस्थ ही गाँवों से शहरों की तरफ अथवा विदेश भी गये. जबकि अन्य जातियों के लोग कम संख्या में गये. नतीजतन गाँवों में भी कायस्थों की जमीने बड़ी मात्रा में बिक्री हुई है. अब ये बड़ी भूमिधारी नहीं रह गये है. जबकि भूमिहार, राजपूत, ब्राम्हण, कुर्मी, अहीर, कोयरी अभी भी अपेक्षाकृत ठीक-ठाक जोतदार है.
कायस्थ डॉ. राजेंद्र प्रसाद को पंडित नेहरु पसंद नहीं करते थे. इसके कारण जो भी रहे हो लेकिन सत्य यह है कि राजेन्द्र प्रसाद को सरदार पटेल का समर्थन हासिल था. जिसके कारण उन्हें राष्ट्रपति बनने में दिक्कत नहीं हुई. समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने भी जब सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन का उद्घोष किया तो बड़ी खेप में पिछड़े युवाओं को राजनीति में मौका मिला.
1963 में कामराज प्लान के तहत केबी सहाय मुख्यमंत्री बने तो उनके विरोध में राजपूत और भूमिहार गुट हावी की कोशिश करने लगे. कृष्णवल्लभ सहाय ने पिछड़े समुदाय के संख्या बल में अधिक यादव समुदाय के रामलखन सिंह यादव को आगे ताकि भूमिहारों और राजपूतों के नेताओं के दबावों को बैलेंस किया जा सके. दिलचस्प बात यह है कि समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने जब केबी सहाय को अकाल के दौरान मुख्यमंत्री के रूप में किये गये राहत कार्यों की सराहना की तो विरोधी जेपी को ही जातिवादी बताने लगे. संभव है कि जेपी द्वारा केबी सहाय की सराहना किये जाने के पीछे जेपी को भूमिहार-राजपूत नेताओं से मिली उपेक्षा भी एक वजह हो.
1952 के विधान सभा के चुनाव में कायस्थ विधायकों की संख्या 40 थी। धीरे-धीरे जातीय लड़ाई में इन्हें राजपूत, भूमिहार, ब्राम्हणों ने राजनीति में भी हाशिए पर रखने की कोशिश की. इनकी संख्या घटती चली गयी. मंडल युग के बाद तो अब कायस्थ विधायकों की संख्या 3 से 4 की बीच ही रहता है.
इन सबके बावजूद कायस्थ यदि पिछड़े समाज की राजनीतिक धारा से दूर बीजेपी की शरण में है जहाँ उसे उपेक्षा भी झेलना पड़ता है तो यह पिछड़ी जातियों के नेताओं की निष्क्रियता, योजनाविहिन राजनीति की पराकाष्ठा ही है. यदि पिछड़ी जातियों को लम्बे समय तक राजनीति में दबदबा बनाना है तो उसे इस बौद्धिक जमात को अपने पाले में करने की नीति पर अमल करना चाहिए. दरअसल इनकी जनसँख्या बिहार में भले ही 1.5 प्रतिशत ही है लेकिन ये बौद्धिक जगत में बिहार के 2.9 प्रतिशत भूमिहारों से अधिक प्रभावी है.
4.7 ब्राम्हणों, 2.9 प्रतिशत भूमिहारों ने 1.5 प्रतिशत कायस्थों को सता को अपदस्थ कर दिया लेकिन आश्चर्य है कि सोशल जस्टिस का सबसे बड़ा पैरोकार कायस्थ संघ इसके बावजूद भी संघ खेमे में चला गया.. जिसकी एकमात्र वजह यह रही कि पिछड़े वर्ग ने कभी बौद्धिक संपदा की कद्र ही नहीं की. आज भी इस मामले में यही स्थिति है. जबकि कायस्थ को ब्राम्हण और क्षत्रिय का भी दर्जा नहीं प्राप्त है.
यह वह बौद्धिक वर्ग है जो मनुवाद की तीन प्रमुख जातियों के बीच जलन और कभी कभार दकियानूसी विचार वालों के बीच हीनता की नजर से देखा जाता रहा है. मसलन कहारों से अधिक मेलजोल के कारण कूट करते हुए ब्राम्हण को हर गाँवों में देखा जाता है. हद तो तब होता है जब कभी-कभार इन्हें हमारे गाँवों में इन्हें चलिसहा (विशेष प्रकार के धार्मिक संस्कार) करने वाला बता दिया जाता है.
सोशलिस्ट समर्थक की रणनीति क्या हो?
बदले समय में जरुरत है कि सोशलिस्ट धारा की पार्टियाँ, लोग सामाजिक स्तर पर इस समाज के लोगों को सवर्ण समाज की तीन जातियों की अपेक्षा सबसे अधिक सम्मान दे.. चूंकि यह जाति इस योग्य है भी. इनके महापुरुषों सच्चिदानंद सिन्हा, लाल बहादुर शास्त्री, जय प्रकाश नारायण जैसे इन्ही के नाम पर समारोहों में खुलकर भाग ले, कार्यक्रम आयोजित करे. जेपी के नाम से सोशलिस्ट थिंक टैंक संस्थानों का गठन हो. प्रतीकात्मक रूप से बिहार के गठन का ख्याल भी तो सच्चिदानंद सिन्हा के मन में पहली बार आया था.. जिनके नाम पर सिन्हा लाइब्रेरी की स्थापना हुई है, जिसका उन्नयन किये जाने की जरुरत है.
शहरी इलाके के निगम चुनावों में पिछड़ी जाति के लोग कायस्थ उम्मीदवारों का समर्थन करने में अन्य तीन जातियों के ऊपर वरीयता दें. मैं तो कहता हूँ कि समर्थन से आगे बढ़कर खुद ही बढ़ चढ़ कर कायस्थ उम्मीदवारों को खड़ा करवाए. जब ऐसा होगा तो खुद ही वर्चस्ववादी मानसिकता वाले लोग इनके विरुद्ध खेमे में आ जायेंगे. उनके अंदर छिपा वर्चस्ववादी मानसिकता सतह पर आते ही एक बौद्धिक जमात पिछड़े वर्ग के साथ खड़ा होना धीरे-धीरे शुरू कर देगा. यह एक दिन में नहीं होगा, कम से कम 10-15 वर्ष जरुर लगेंगे, किन्तु यह संभव है. बिहार की राजनीति में संघ की ‘लोमड़ी नीति’ को पटखनी देने के लिए आपको योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ेगा.
पटना जैसे शहरी इलाकों के विधानसभा सीटों पर जदयू, राजद जैसी पार्टियाँ कायस्थों का कोटा समझ कर प्रत्याशी देते रहे. नगर निगम में कायस्थों का अहीर, कोयरी, कुर्मी, कहार, निषाद, दलित सोशल जस्टिस के समर्थन में जो भी जातियां है, खुल कर कायस्थ प्रत्याश्यों का समर्थन करें. इसके रिएक्शन में आप देखेंगे कि जो असली वर्चस्ववादी समूह है, वो अपने रंगत में आ जाएगा.
दलों के जिला प्रकोष्ठों से लेकर राज्य प्रकोष्ठों में इन्हें जनसंख्या से अधिक भागीदारी दे. राज्यसभा, विधान परिषद् के साथ-साथ बिहार के मंत्रीपरिषद में भी इस जाति को भागीदार बनायें. इनके महापुरुषों के नाम पर पर्याप्त संख्या में चौक-चौराहों, लाइब्रेरी का निर्माण कराएँ. इस प्रकार की जब गतिविधियां होंगी तो स्वाभाविक है कि विरोध में भी कुछ प्रतिक्रिया होगी.
जो लोग दबी जुबान से इस जाति की आलोचना करते है, करते रहे है. वे खुलकर विरोध पर उतर जायेंगे. फिर संघ की गोद में खेल रहे कायस्थों को भी इतिहास में मिले उपेक्षा का भान होगा… और पिछड़ों की राजनीति को बौद्धिक जमात का समर्थन भी हासिल होगा. जो मीडिया से लेकर सिविल सोसाइटी के किसी भी हिस्से में किसी भी समूह से कम नहीं बल्कि बेहतर है.
2011 के आंकड़ों के मुताबिक बिहार में शहरी आबादी 11.30 प्रतिशत है, यह अनुमानित रूप से अब 15 प्रतिशत हो गयी है. बिहार में शहरी क्षेत्र के लगभग 30 विधानसभा सीट है जहाँ गाँवों से निकलकर कायस्थ स्थायी रूप से बस चुके है. शहरी क्षेत्र भाजपा का गढ़ माना जाता है. इस गढ़ को तोड़े बिना सोशलिस्ट धारा की पार्टियों को संघ के ऊपर फतह हासिल होना मुश्किल है. जदयू-राजद के लोगों को बताना चाहिए वो इस बारे में क्या सोचते है. कब तक रक्षात्मक राजनीति करते रहेंगे. यह समय है कि जब मीडिया, सोशल मीडिया के माध्यम से संघ विभेद डाल कर आपमें सेंध लगा रहा है तब आप भी उस ‘लोमड़ी नीति’ का माकूल जवाब दे.
ऐसा करने से सिर्फ राजनीतिक गठजोड़ ही नहीं बनेगा बल्कि सोशल जस्टिस की पार्टियों को डेवलपमेंट का टैग भी मिलेगा, ठीक उसी तरह से जैसे संघ की विचारधारा की पार्टी भाजपा को मिला हुआ है. ध्यान रहे कि राजनीतिक गठजोड़ तभी सफल होता है जब आपका उस वर्ग से सामाजिक समरसता बेहतर हो.
अंत में: कायस्थों ने जब शहरों की तरफ पलायन किया तो उसकी जमीन पर घूर फेकने के लिए किसी से झगडा नहीं किया. उसके खेतों को पिछड़ी जातियों के लोग जोतते रहे. हल्की बात के लिए इनसे मनमुटाव जैसे बातें कम ही देखने को मिलती है. शहरों में बसा कायस्थ माली हालत कमजोर होने के बावजूद गाँव में बचा दस कठ्ठा खेत की उपज के लिए किसी पिछड़े वर्ग के जोतदार से झगड़ा नहीं किया. यह जाति तो सोशल जस्टिस की जाति है. यह यदि अधिक आगे है तो अपने विवेक से चातुर्य कौशल से.. इसे अपने पाले में लेने की कोई कोशिश नहीं हुई.
गाँव के गाँव कायस्थों के घरों में ताले लटके मिलेंगे. बहुलतावाद के क्षरण होने के अपने परिणाम होते है. यह निराशाजनक होते है. यदि बिहार के गाँवों से कायस्थों का शहरों की तरफ पलायन होने से रोका जाता तो शिक्षा के लिए बेहतर शिक्षक की तलाश में बिहार के लोग कस्बों-शहरों की तरफ पलायन नहीं करते. यह गाँवों में रहने वाले लोग ही महसूस कर सकते है.
सरकार को इस मामले में विस्तृत अध्ययन कर समुचित पहल करनी चाहिए.
नोट: जातियों की चर्चा सामाजिक रूप से की गई है, इसे व्यक्तिगत रूप से नहीं समझा जाए, जाति के आधार पर किसी व्यक्ति को किसी भी विचारधारा का समर्थक नहीं ठहराया जा सकता है.



प्रमोद झा जी आप के टाइटल से न तो आप ब्राह्मण न ही भूमिहार बुझा रहे । खैर आप किसी जाति से हो अगर हम आपको जाति आलोचना करें तो आपकी बुद्धि छिंद हो जाएगी।। आपने कहा कि कायस्थों के घर कहार और दलितों का आना जाना लगा होता था जरुर पर कायस्थों के घर में काम और मजदूरी के लिए आते थे।
क्या आप को पता ब्राह्मण भूमिहार के लोग भी कायस्थो के घर भीक्षा लेना आते थे।
ब्रह्मण भूमिहार की बाटियां तो दलितों से शादी कर रही । अंबेडकर ने ब्रह्मण की बेटी से शादी की थी ये एक मामला नहीं हम आपको लाखो ऐसे मामलो से अवगत करा सकते । और राजपुत के पुत्री मुस्लिम के घर नीखा पढ़वा देते है लोग।
ब्रह्मण भूमिहार जाति आज शूद्र से भी नीच हो रही है।।
आप ब्राह्मण हो कर ये नही पता की कायस्थ देवपुत्र भगवान चित्रगुप्त के वंशज और उनकी पत्नी एक ब्राह्मणी और क्षत्रिय थी और उनके पुत्र ब्रह्मशत्रीय।
वो वैश्य समाज दूर दूर से कोई लेना देना नही
वेदों के अनुसार कायस्थ का उद्गम पितामह श्रृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा जी हैं। उन्हें ब्रह्मा जी ने अपनी काया[ध्यान योग] की सम्पूर्ण अस्थियों से बनाया था तभी इनका नाम काया+अस्थि = कायस्थ हुआ।
आप ने स्वामी विवेकानंद का जिक्र नहीं किया जिन्होंने अपनी जाती की टिप्प्णी कुछ इस प्रकार दी हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने अपनी जाति की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है:
“ मैं उन महापुरुषों का वंशधर हूँ, जिनके चरण कमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नमः का उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विशुद्ध रूप से क्षत्रिय हैं। यदि अपने पुराणों पर विश्वास हो तो, इन समाज सुधारकों को जान लेना चाहिए कि मेरी जाति ने पुराने जमाने में अन्य सेवाओं के अतिरिक्त कई शताब्दियों तक आधे भारत पर शासन किया था। यदि मेरी जाति की गणना छोड़ दी जाये, तो भारत की वर्तमान सभ्यता शेष क्या रहेगा? अकेले बंगाल में ही मेरी जाति में सबसे बड़े कवि, इतिहासवेत्ता, दार्शनिक, लेखक और धर्म प्रचारक हुए हैं। मेरी ही जाति ने वर्तमान समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक (जगदीश चन्द्र बसु) से भारतवर्ष को विभूषित किया है। स्मरण करो एक समय था जब आधे से अधिक भारत पर कायस्थों का शासन था। कश्मीर में दुर्लभ बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्य भारत में सातवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता में रहे हैं। अतः हम सब उन राजवंशों की संतानें हैं। हम केवल बाबू बनने के लिये नहीं, अपितु हिन्दुस्तान पर प्रेम, ज्ञान और शौर्य से परिपूर्ण उस हिन्दू संस्कृति की स्थापना के लिये पैदा हुए हैं। ”
—स्वामी विवेकानन्द
आप ब्राह्मण तो ब्रह्मा के मुख से उत्पति हुआ है पर कायस्थ को ब्राह्म के पूरे शरीर से ।
⚡वर्ण व्यवस्था
विभिन्न विचारों के आधार पर क्षत्रिय वर्ग का उच्च शिक्षित और विद्वान् श्रेणी है।
अन्य मान्यता के अनुसार कायस्थ ब्राह्मण से छोटा और क्षत्रिय से बड़ा है।
बंगाल , कायस्थ और ब्राह्मण सबसे बड़े जाति से सम्मानित है। मुस्लिम विजय के बाद अवशेषों पर कायस्थ वंश –सेन ,पाल , चंद्र और वर्मन का शासन था। इस तरह स्थानापन क्षेत्रीय या वीरों का वर्ग हुआ।
महाराष्ट्र में चन्द्रसेनिया कायस्थ प्रभु ने आरोप लगाया है की इस तरह क्षेत्रीय वंश का हैहय वंश ने शासन किया।
हर्बर्ट होप रिसले के परिकल्पना के आधार पर ब्रिटिश शासन काल में ब्रिटिश कोर्ट ने फैसला सुनाया की कायस्थ शूद्र है।
तथापि बंगाल ,बॉम्बे और संयुक्त राज्य के कायस्थों ने चुनौती दिया।
किताबों ,पम्फ्लेट्स ,परिवारिक इतिहास और जर्नल के माध्यम से सरकार पर क्षेत्रीय बनाने का दबाव डाला।
1890 में इलाहाबाद के ब्रिटिश कोर्ट ने फैसला सुनाया की कायस्थ क्षेत्रीय थे।
1927 में ब्रिटिश हाई कोर्ट पटना ने फैसला दिया की कायस्थ बड़े वर्ग है।
1931में ब्रिटिश जनगणना में कायस्थ को उच्च वर्गों में रखा गया-(क्षेत्रीय और ब्राह्मण-दो जातियों से उत्पति )
⚡ अरे आप इतने बुद्धिमान होते तो आपको पता होगा कि पूरे भारत भर कायस्थ समाज ऐसा समाज है जो obc sc st में नही आता
पर अगर बात ब्रह्मण भूमिहार राजपुत की करे तो भारत के कुछ राज्य में ये समाज पिछड़ा वर्ग में आता है।
ज्यादा ज्ञान आप मत पेलीय आज ब्रह्मण की स्थिति हमे मालूम नही कितनी इज्जत है
दलित पिछड़ा समाज रोज गाली देता ब्राह्मणों को ब्राह्मणों भूमिहार के लोग पैदायासी भिखारी होते जो रोज हर समाज के घर भीख मांगने पहुंचते बस फर्क इतना राहत की कुछ अच्छे कपड़े पहेने कर आते ।
ब्रह्मण तो आज कल अतिशिद्र की से भी नीच हो गाय जिस्की बाटिया दलितों पिछड़ों के घर आना जाना लगा रहा हुआ है।
स्वर्ण समाज में जनसंख्या ब्राह्मण 5% भूमिहार 4% और राजपुत 5.5 % और कायस्थों की 1 % से भी कम है बुद्धिमता से कायस्थों ने नाम कमाया है।
और आज जिसकी ज्यादा जनसंख्या वो ही राजा । आप कायस्थों की तुलना अपने तीनों छोटे स्वर्णों से मत करो
आपने कहा कि तलवार के दम पे कयास्तो ने राज नही किया तो आपने अभी तक कुछ नहीं जाना होगा
कश्मीर के कारकोट स्म्रज्य के ललितादित्य मुख्यपीठ के बारे में और बंगाल के प्रतापदितिया का नाम नही सुना होगा
सर्च कर लीजिए कोन था । अभी आपको कायस्थों की ज्यादा जानकारी नहीं और आधी जानकारी से ब्लॉग मत लिखो
क्योंकि आधी जानकारी बहुत खराब होती है।
अरे मेरे भाई आप को कायस्थों से इतना ही ईर्षा हो रही है तो के चुल्लू भर पानी में डूब मरो।
आपने तो अभी तक राजतरंगनी तक नहीं पढ़ा होगा जा के राजतरंगनी पढ़ लेना। की कायस्थो ने कितना राज किया है। तलवारों के दम पे
बाभन तरसइ अन्न को, सुअर भक्षइ चमार । कायस्थ जिये राजा सा, राज किये कई बार ।। राजतरन्गिणी- 1173 न. दोहा
आपने ये दोहा नही पढ़ा होगा जो राजतरंगनी में है।
बाभन तरसइ अन्न को, सुअर भक्षइ चमार । कायस्थ जिये राजा सा, राज किये कई बार ।। राजतरन्गिणी- 1173 न. दोहा