ताकि बचा रहे हमारा देश!
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जब जब टूटती हमारी आशा,
तब छूट जाती हमारी संयमित भाषा,
क्योंकि अक्सर हमें घेर लेती है निराशा,
और हम गढ़ने लगते हैं,
अपनी अपनी परिभाषा,
अपने परिवेश की,
अपने हिसाब से अपने संदेश की,
और अपने अधूरे ज्ञान के निवेश की।
तब लोगों के दिलों में,
बेहतर परिवेश का,
होता है ठोस आगाज,
सबके के दिलों से निकलती है,
एक स्वर से एक नयी आवाज,
कि हमें गढ़ना होगा एक नया समाज,
ताकि बचा रहे हमारा देश,
बेहतर सामाजिक परिवेश,
उगता रहे आशा के दिनेश,
नूतन प्रत्याशा के साथ,
मर्यादित भाषा के साथ,
और मिले रहें हम सबके हाथ,
अगली पीढ़ी के लिए।।
श्यामल सुमन
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