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स्टील सिटी जमशेदपुर से करीब साठ किलोमीटर की दूरी पर आदिवासी बहुल कस्बा खरसावां है

स्टील सिटी जमशेदपुर से करीब साठ किलोमीटर की दूरी पर आदिवासी बहुल कस्बा खरसावां है

सरायकेला खरसावां – भारत की आज़ादी के करीब पांच महीने बाद जब देश एक जनवरी 1948 को आज़ादी के साथ-साथ नए साल का जश्न मना रहा था तब खरसावां ‘आज़ाद भारत के जलियांवाला बाग़ कांड’ का गवाह बन रहा था.
उस दिन साप्ताहिक हाट का दिन था. ओडिशा सरकार ने पूरे इलाक़े को पुलिस छावनी में बदल दिया था. खरसावां हाट में करीब पचास हज़ार आदिवासियों की भीड़ पर ओडिशा मिलिट्री पुलिस गोली चला रही थी
आज़ाद भारत का यह पहला बड़ा गोलीकांड माना जाता है. इस घटना में कितने लोग मारे गए इस पर अलग-अलग दावे हैं और इन दावों में भारी अंतर है.
खरसावां का ओडिशा में विलय का विरोध कर रहे तीस हजार आदिवासियों पर पुलिस ने फायरिंग की इस गोलीकांड की जांच के लिए ट्रिब्यूनल का भी गठन किया गया था
झारखंड आन्दोलन कारी और पूर्व विधायक बहादुर उरांव की उम्र घटना के वक़्त करीब आठ साल थी खरसावां के बगल के इलाके झिलिगदा में उनका ननिहाल है. सबसे पहले उन्होंने बचपन में ननिहाल जाने पर खरसावां गोलीकांड के बारे में सुना और फिर आन्दोलन के क्रम में इसके इतिहास से रूबरू हुए.
गोलीकांड का दिन गुरुवार और बाजार-हाट का दिन था. सरायकेला और खरसावां स्टेट को उड़िया भाषी राज्य होने के नाम पर उड़ीसा अपने साथ मिलाना चाहता था और यहाँ के राजा भी इसे लेकर तैयार थे. मगर इलाके की आदिवासी जनता न तो उड़ीसा में मिलना चाहती थी और न बिहार में उसकी मांग अलग झारखंड राज्य की थी. झगड़ा इसी बात को लेकर था. ऐसे में पूरे कोल्हान इलाके से बूढ़े-बुढ़िया, जवान, बच्चे, सभी एक जनवरी को हाट-बाज़ार करने और जयपाल सिंह मुंडा को सुनने-देखने भी गए थे. जयपाल सिंह अलग झारखण्ड राज्य का नारा लगा रहे थे. जयपाल सिंह मुंडा के आने के पहले ही भारी भीड़ जमा हो गई थी और पुलिस ने एक लकीर खींच कर उसे पार नहीं करने को कहा था
नारेबाजी के बीच लोग समझ नहीं पाए और अचानक गोली की आवाज़ आई. बड़ी संख्या में लोग मारे गए. अभी जो शहीद स्थल है वहां एक बहुत बड़ा कुआं था. यह कुआं वहां के राजा रामचंद्र सिंहदेव का बनाया हुआ था. इस कुएं को न केवल लाश बल्कि अधमरे लोगों से भर दिया गया और फिर उसे ढंक दिया गया
एक जनवरी 1948 की घटना को उन्होंने कुछ इस तरह याद किया आज जहाँ शहीद स्थल है उसके पास तब डाक बंगला था जो आज भी है. पास ही ब्लॉक ऑफिस था. वहां पर एक मशीनगन गाड़ कर एक लकीर खींच दी गई थी और लोगों से कहा गया था कि वे लकीर पार कर राजा से मिलने की कोशिश नहीं करें. ऐसा सुनने में आता है कि आदिवासियों ने पहले तीर से हमला किया इसके बाद गोली चलाई गई.
घटना के बाद इलाके में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया. शायद आज़ाद भारत में पहला मार्शल लॉ येहीं लगा था. कुछ दिनों बाद ओडिशा सरकार ने देहात में बाँटने के लिए कपड़े भेजे, जिसे आदिवासियों ने लेने से इंकार कर दिया. लोगों के दिल में था कि यह सरकार हम लोगों पर गोली चलाई तो हम इसका दिया कपड़ा क्यों लें
इस गोलीकांड का प्रमुख कारण था खरसावां के ओडिशा राज्य में विलय का विरोध. आदिवासी और झारखंड (तब बिहार) में रहने वाले समूह भी इस विलय के विरोध में थे. मगर केंद्र के दवाब में सरायकेला के साथ ही खरसावां रियासत का भी ओडिशा में विलय का समझौता हो चुका था.
1 जनवरी, 1948 को यह समझौता लागू होना था तब मरांग गोमके के नाम से जाने जाने वाले आदिवासियों के सबसे बड़े नेताओं में से एक और ओलंपिक हॉकी टीम के पूर्व कप्तान जयपाल सिंह मुंडा ने इसका विरोध करते हुए आदिवासियों से खरसावां पहुंचकर विलय का विरोध करने का आह्ववान किया था. इसी आह्ववान पर वहां दूरदराज इलाकों से लेकर आस-पास के इलाकों के हजारों आदिवासियों की भीड़ अपने पारंपरिक हथियारों के साथ इकठ्ठा हुई थी
आदिवासियों की अपने राज्य और स्वशासन की मांग काफी पुरानी है. 1911 से तो इसके लिए सीधी लड़ाई लड़ी गई. इसके पहले बिरसा मुंडा के समय ‘दिसुम आबुआ राज’ यानी की ‘हमारा देश, हमारा राज’ का आन्दोलन चला. इसके पहले 1855 के करीब सिद्धू-कानू भी ‘हमारी माटी, हमारा शासन’ के नारे के जरिये वही बात कह रहे थे.” इसी आन्दोलन को आगे बढ़ाते हुए आज़ादी के बाद सरायकेला -खरसावां इलाके के आदिवासी मांग कर रहे रहे थे कि अलग झारखण्ड की हमारी मांग को ज्यों का त्यों रहने दीजिए और हमें किसी राज्य यानी की बिहार या ओडिशा में मत मिलाइए
गोलीकांड के दिन भारी भीड़ थी. लोग आगे बढ़ रहे थे और साथ में मैं भी आगे जा रहा था. अचानक ओडिशा पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. मैंने सात जवानों को मशीनगन से फायरिंग करते देखा.” घटना के बाद पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई. उन दिनों देश की राजनीति में बिहार के नेताओं का अहम स्थान था और वे भी यह विलय नहीं चाहते थे. ऐसे में इस घटना का असर यह हुआ कि इलाके का ओडिशा में विलय रोक दिया गया. घटना के बाद समय के साथ यह जगह खरसावां शहीद स्थल में रूप में जाना गया जिसका आदिवासी समाज और राजनीति में बहुत जज्बाती और अहम स्थान है. खरसावां हाट के एक हिस्से में आज शहीद स्मारक है और इसे अब पार्क में भी तब्दील कर दिया गया है. एक ओर जहाँ एक जनवरी को शहीद स्थल पर आदिवासी रीति-रिवाज से पूजा की जाती है तो दूसरी ओर हर साल यहां झारखंड के सभी बड़े राजनीतिक दल और आदिवासी संगठन कार्यक्रम करते हैं. इस बार भी खरसांवा चौक कई दलों के होर्डिंग्स से पट चुका है. विजय सिंह बोदरा अभी शहीद स्थल के पुरोहित हैं. उनका परिवार ही यहाँ पीढ़ियों से पूजा कराता आ रहा है. विजय ने बताया, “एक जनवरी को शहीदों के नाम पर पूजा की जाती है. लोग श्रद्धांजलि देते हैं. फूल-माला के साथ चावल के बना रस्सी चढ़ा कर पूजा की जाती है. शहीद स्थल पर तेल भी चढ़ाया जाता है.