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फिल्मी धरोहर रणजीत स्टूडियो

रणजीत स्टूडियो की स्थापना मूल रूप से जामनगर (गुजरात) के रहने वाले सरदार चंदूलाल शाह ने साल 1929 में की थी। इस स्टूडियो की शुरुआती दौर में ही सरदार चंदूलाल शाह ने अपने स्टूडियो में सात सौ से भी ज्यादा कलाकार और तकनीशियन को नौकरी दिया था। यहां तक कि उस जमाने में सरकार ने ‘रणजीत स्टूडियो’ के अंदर ही राशन की दुकान भी खुलवा दी थी। जहां ‘रणजीत’ की फ़िल्मों से ही माधुरी, सुलोचना (रूबी मायर्स), बिलिमोरिया भाईयों, ईश्वरलाल, चार्ली, दीक्षित, घोरी, ख़ुर्शीद और मोतीलाल जैसे सितारों, उस्ताद झंडे ख़ां, ज्ञानदत्त, बुलो सी.रानी, आदि संगीतकारों और जयंत देसाई, नानूभाई वकील, चतुर्भुज दोषी, मणिलाल व्यास, दीनानाथ मधोक और नंदलाल जसवंतलाल जैसे निर्देशकों ने अपनी पहचान बनाई, वहीं दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान कोलकाता छोड़कर मुंबई आए केदार शर्मा, लीला देसाई, कुंदनलाल सहगल, ख़ुर्शीद, बिपिन गुप्ता और खेमचंद प्रकाश जैसे दिग्गजों को ‘रणजीत स्टूडियो’ में ही पनाह मिली थी। यही नहीं, इससे पहले त्रिलोक कपूर, पृथ्वीराज कपूर और कल्याणीबाई जैसे कलाकार भी कोलकाता से ‘रणजीत स्टूडियो’ के बुलावे पर ही मुंबई आए थे।

1929 से 1932 के 4 सालों में ‘रणजीत फ़िल्म कंपनी’ के बैनर में ‘भिखारन’, ‘देह ना दान’, ‘पति-पत्नी’, ‘राजपूतानी’, ‘सिंहलद्वीप की सुंदरी’ (सभी 1929), ‘अलबेला सवार’, ‘देशदीपक’, ‘दीवानी दिलबर’, ‘जवांमर्द’, ‘जोबन ना जादू’, ‘मदभर मोहिनी’, ‘नूरेवतन’, ‘पहाड़ी कन्या’, ‘रानकदेवी’, ‘रसीली राधा’, ‘शेखचिल्ली’, आऊटलॉ ऑफ़ सोरठ’, ‘वनराज’, द टाईग्रेस’, (सभी 1930), ‘बॉम्बे द मिस्टीरियस’, ‘बगल्स ऑफ़ वॉर’, ‘बगदाद की बुलबुल’, ‘बांके सांवरिया’, ‘घूंघटवाली’, ‘ग्वालन’, ‘हूरे रोशन’, ‘क़ातिल कटारी’, ‘मौजिली माशूक़’, ’नूरे आलम’, ‘प्रेम जोगन’, ‘लव बर्ड्स’, ‘विजयलक्ष्मी’, ‘विलासी आत्मा’ (सभी 1931), ‘बगदाद का बदमाश’, ‘लाल सवार’, ‘नखरेली नार’ और ‘सिपहसालार’ (सभी 1932) जैसी कुल 37 साईलेंट फ़िल्मों का निर्माण किया गया। इन हिट फ़िल्मों में साईलेंट फ़िल्मों के उस दौर के गौहर, पुतली, सुल्ताना, शांताकुमारी, माधुरी, ज़ुबैदा, राजा सैंडो, बिलिमोरिया भाई, ईनामदार, बाबूराव और ईश्वरलाल जैसे कलाकारों ने काम किया था। चंदूलाल शाह, नानूभाई वकील, जयंत देसाई, नंदलाल जसवंतलाल और नागेन्द्र मजूमदार रणजीत फ़िल्म कंपनी के बैनर में बनी इन फिल्मों के निर्देशक हुआ करते थे।

बोलती फ़िल्मों का ज़माना आया तो रणजीत फ़िल्म कंपनी का नाम बदलकर ‘रणजीत मूवीटोन’ कर दिया गया। इस बैनर की पहली टॉकी (बोलती) फ़िल्म थी ‘देवी देवयानी’ (1931), जिसकी मुख्य भूमिकाएं गौहरजान मामाजीवाला, डी.बिलिमोरिया, केकी अडजानिया, मास्टर भगवानदास और मिस कमला ने निभाई थीं। इस फ़िल्म के निर्देशक चंदूलाल शाह और संगीतकार उस्ताद झंडे ख़ां थे। उस्ताद झंडे ख़ां ने साल 1931 से साल 1933 के बीच बनी ‘रणजीत मूवीटोन’ की सभी 13 टॉकी फ़िल्मों ‘देवी देवयानी’ (1931), ‘भूतिया महल’, ‘चार चक्रम’, ‘दो बदमाश’, ‘राधारानी’, ‘शैलबाला’, ‘सतीसावित्री’ (सभी 1932), ‘भोला शिकार’, ‘भूलभुलैया’, ‘कृष्णसुदामा’, ‘मिस 1933’, ‘परदेसी प्रीतम’ और ‘विश्वमोहिनी’ (सभी 1933) में संगीत दिया था। आगे चलकर इन्हीं उस्ताद झंडे ख़ां के सहायक के तौर पर संगीतकार नौशाद ने फिल्मों में कदम रखा था।

साल 1931 में ‘आलमआरा’ से टॉकी फ़िल्मों का दौर शुरू होने के साथ ही लाहौर, कोलकाता, पुणे और कोल्हापुर बहुत तेज़ी से फ़िल्म निर्माण का केन्द्र बनकर उभरने लगे थे। उस दौर की ‘प्रभात पिक्चर्स’ (पुणे), ‘जयाप्रभा’ और ‘प्रफुल्ल पिक्चर्स’ (कोल्हापुर), ‘न्यू थिएटर्स’ और ‘माडन थिएटर्स’ (कोलकाता) ‘पंचोली आर्ट्स’ (लाहौर) और ‘बॉम्बे टॉकीज़’ और ‘वाडिया मूवीटोन’ (मुंबई) जैसी अग्रणी कंपनियों के बीच एक चमकता हुआ नाम था।फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उस जमाने में जो प्रोडक्शन हाउस गतिशील थे उन सभी ने चंदूलाल शाह द्वारा स्थापित रणजीत स्टूडियो की ओर अपना रुख़ किया और रणजीत स्टूडियो को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार किया।

वरिष्ठ फिल्म पत्रकार एवं रणजीत स्टूडियो के प्रबंधन के काफी करीब रहे अरुण कुमार शास्त्री(मायापुरी) के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 1920 के दशक की शुरूआत में सरदार चंदूलाल शाह व्यवसाय के सिलसिले में मुंबई आकर बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में नौकरी करने लगे थे। फ़िल्मों में उनका आना महज़ इत्तेफ़ाक़ से हुआ था, जब उन्हें ‘लक्ष्मी फ़िल्म कंपनी’ की साल 1925 में बनी फ़िल्म ‘विमला’ डायरेक्ट करने का मौक़ा मिला था। उस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राजा सैण्डो और पुतली। साल 1925 में ही चंदूलाल शाह ने ‘लक्ष्मी फ़िल्म कंपनी’ की फ़िल्म ‘पांच दादा’ डायरेक्ट की। इस फ़िल्म की मुख्य भूमिकाएं भी राजा सैण्डो और पुतली ने ही निभाई थीं। साल 1926 में इसी कंपनी की फ़िल्म ‘माधव काम कुंडला’ डायरेक्ट करने के बाद चंदूलाल शाह को ‘कोहेनूर फ़िल्म कंपनी’ की फ़िल्म ‘टाईपिस्ट गर्ल’ डायरेक्ट करने का मौक़ा मिला। ये फ़िल्म उन्होंने जी.एस.देवारे के साथ मिलकर डायरेक्ट की थी। साल 1926 की बहुत बड़ी हिट साबित हुई इस फ़िल्म ‘टाईपिस्ट गर्ल’ की मुख्य भूमिकाओं में सुलोचना (रूबी मायर्स), राजा सैंडो और आर.एन.वैद्य के अलावा गौहरजान मामाजीवाला भी शामिल थीं जो सौराष्ट्र के एक बोहरी मुस्लिम परिवार से थीं। ‘टाईपिस्ट गर्ल’ के बाद चंदूलाल शाह ने गौहर को मुख्य भूमिका में लेकर ‘कोहिनूर फ़िल्म कंपनी’ की ‘एजुकेटेड वाईफ़’, ‘गुणसुंदरी’, ‘सती माद्री’, ‘सुमारी ऑफ़ सिन्ध’ (चारों 1927), ‘जगदीश फ़िल्म कंपनी’ की ‘गृहलक्ष्मी’, ‘विश्वमोहिनी’ (दोनों 1928) और ‘चन्द्रमुखी’ (1929) जैसी कुछ फ़िल्में डायरेक्ट कीं और फिर गौहर के साथ मिलकर साल 1929 में उन्होंने दादर (पूर्व) में ‘रणजीत स्टूडियो’ की नींव रखी। 13 अप्रैल 1898 को गजरात में जन्मे फिल्मकार चंदूलाल शाह ने स्टूडियो का नाम जामनगर के महाराजा और मशहूर क्रिकेटर रणजीत सिंह के सम्मान में रखा था| स्टूडियो की स्थापना महाराजा रणजीत सिंह द्वारा दी गयी आर्थिक मदद से की गयी थी।

1940 के दशक में ‘रणजीत मूवीटोन’ के बैनर में कुल 50 फ़िल्मों का निर्माण किया गया। कोलकाता से आए लेखक-निर्देशक केदार शर्मा ने मुंबई में ‘रणजीत मूवीटोन’ की फ़िल्म ‘अरमान’ (1942) से करियर शुरू किया तो गायक-अभिनेता के.एल.सहगल ने ‘भक्त सूरदास’ (1942) से। सहगल अभिनीत मशहूर फ़िल्में ‘तानसेन’ (1943) और ‘भवंरा’ (1944) भी ‘रणजीत मूवीटोन’ के ही बैनर में बनी थीं। शेयर बाज़ार में सट्टा लगाने और घुड़दौड़ के शौक़ीन चंदूलाल शाह जहां भी हाथ डालते उन्हें कामयाबी ही हाथ लगती थी। हर तरफ़ से मिल रही कामयाबी ने चंदूलाल शाह के आत्मविश्वास को इतना बढ़ा दिया था कि जोख़िम उठाने में उन्हें मज़ा आने लगा था।1940 के दशक के मध्य में ‘रणजीत स्टूडियो’ के पतन की शुरूआत तब हुई जब कपास के सट्टे में और घोड़े की रेस में चंदूलाल शाह एक ही दिन में 1 करोड़ 25 लाख की रक़म हार गये। ये घटना साल 1944 में घटी थी। हालात सम्भालने की कोशिश में साल 1950 में ‘रणजीत स्टूडियो’ की तमाम संपत्ति के अलावा ऑपेरा हाऊस के पास मौजूद गौहरजान के मालिकाना हक़ वाली बहुमंज़िला रिहायशी इमारत को भी एशियन इंश्योरेंस कंपनी (अब भारतीय जीवन बीमा निगम) के पास गिरवी रख देना पड़ा, जिन्हें आख़िर तक नहीं छुड़ाया जा सका। इसके बावजूद ‘बेदर्दी’ ‘हमलोग’ (दोनों 1951), ‘बहादुर’, फ़ुटपाथ’, ‘पापी’ (तीनों 1953), ‘औरत तेरी यही कहानी’, ‘धोबी डॉक्टर’ (दोनों 1954), ‘ज़मीन के तारे’ (1960) जैसी फ़िल्में तो ‘रणजीत मूवीटोन’ के बैनर में बनीं ही, चंदूलाल शाह ने भी 14 सालों बाद फ़िल्म ‘पापी’ से एक बार फिर से निर्देशन में हाथ आज़माने की कोशिश की। ‘पापी’ राजकपूर के करियर की वो अकेली फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने डबल रोल किया था। लेकिन तमाम कोशिशें व्यर्थ गयीं और ‘अकेली मत जईयो’ (1963) ‘रणजीत मूवीटोन’ की आख़िरी फ़िल्म साबित हुई। वैसे साल 1965 में राजकपूर और वैजयंतीमाला को लेकर फ़िल्म ‘बहुरूपिया’ का निर्माण शुरू किया गया था। शंकर जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध इस फ़िल्म का एक गीत फ़िल्माया भी जा चुका था लेकिन ये फ़िल्म अधूरी रह गयी। फिल्म मेकर चंदूलाल शाह, जिन्हें मशहूर फ़िल्म पत्रकार बाबूराव पटेल ने ‘सरदार’ की उपाधि से नवाज़ा था, उनका निधन 25 नवंबर 1975 को हुआ था और गौहरजान मामाजीवाला का देहांत वर्ष 1984 में हुआ था। वर्ष1929 से 1963 के दौरान ‘रणजीत मूवीटोन’ के बैनर तले कुल 37 साईलेंट, 1 तमिल, 1 मराठी और 120 हिंदी फ़िल्मों का निर्माण किया गया। आज ‘रणजीत मूवीटोन’ के बैनर में बनी सिर्फ़ 7 फ़िल्में ‘तानसेन’, जोगन’, ‘हम लोग’, ‘पापी’, ‘फ़ुटपाथ’, ‘ज़मीन के तारे’ और ‘अकेली मत जईयो’ ही उपलब्ध हैं बाक़ी सभी फ़िल्मों के निगेटिव आग में जलकर ख़त्म हो चुके हैं।

रणजीत मूवीटोन’ के बैनर में फ़िल्म निर्माण के बंद हो जाने के बाद ‘रणजीत स्टूडियो’ की बागडोर ‘यूनाईटेड टेक्नीशियंस’ ने संभाल ली और स्टूडियो के फ़्लोर्स को बाहरी निर्माताओं को किराए पर शूटिंग के लिए दिया जाने लगा। ‘यूनाईटेड टेक्नीशियंस’ ‘रणजीत मूवीटोन’ में काम करने वाले 7 तकनीशियनों का समूह था, जिसमें ‘वसंतराव बुआ’, ‘शाहभाई’, मोहनभाई’, ‘हसमुखभाई मिस्त्री’, ‘वहाबभाई’, कपूर साहब’ और ‘माधवराव’ शामिल थे। लेकिन साल 1984 में इंश्योरेंस कंपनी ने गिरवी रखी गयी पूरी सम्पत्ति को नीलाम कर दिया था। आज दादर (पूर्व) के दादा साहब फाल्के मार्ग पर स्थित ‘रणजीत स्टूडियो’ का मालिकाना हक़ मुम्बई के एक नामी बिल्डर एन.एल.,मेहता के हाथों में है। गुज़रे ज़माने की फ़िल्मों के निगेटिव्ज़ और प्रिंट्स को तलाशने के व्यवसाय में जुटे जयराज पुणातर , निर्माता एन.सी.सिप्पी और झारखंड की धरती से जुड़े फिल्मकार राजेश मित्तल के ऑफ़िसों को अपवाद मान लिया जाए तो सिनेमा से ‘रणजीत स्टूडियो’ का रिश्ता पूरी तरह से टूट चुका है। अब इसमें दर्जनों ग़ैर-फ़िल्मी कंपनियों के दफ़्तर और कपड़ा फ़ैक्ट्रियां मौजूद हैं। फिल्मकार राजेश मित्तल फिल्म निर्माण व वितरण व्यवसाय का संचालन इसी स्टूडियो परिसर में स्थित अपने कार्यालय से करते हैं।

‘रणजीत मूवीटोन’ बैनर भले ही इतिहास का हिस्सा बन चुका हो लेकिन स्टूडियो आज भी फिल्मी तारीख़ को अपने आगोश में लिए अपने पुराने वज़ूद के साथ अपनी जगह पर खड़ा है।