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आपातकाल की सीख – वंशवादी आपदा से बचें – हरदीप एस पुरी

आपातकाल की सीख – वंशवादी आपदा से बचें
– हरदीप एस पुरी

अनेक बार राष्ट्र कुछ ऐसे अनुभवों से गुजरते हैं जिनके सामूहिक आघात से वे दशकों बाद भी नहीं उबर पाते। आपातकाल की कठोर अवधि, जब सभी नागरिक स्वतंत्रताएं निलंबित कर दी गईं थी, एक ऐसा ही आघात है।
जो लोग आपातकाल से नहीं गुजरे वे शायद कभी नहीं जान पाएंगे कि वह कैसा था। बाद की पीढ़ियों को यह नहीं पता होगा कि लोग बस लापता हो गए थे या अधिकारियों द्वारा उचित प्रक्रिया के बिना उन्हें उठा ले जाने के बाद वे लोग मृत पाये गए थे, हजारों लोग जेलों में ठूंस दिये गए थे, कई की जबरन नसबंदी कर दी गई थी और पूरे देश की ज़ुबान बंद करने के प्रयास किए गए थे।
जितना अधिक हम घटनाओं की उन परिस्थितियों के बारे में और उस अवधि के दौरान की स्थिति के बारे में पढ़ते हैं जिनके कारण आपातकाल लगाया तो पाते हैं कि अगले चुनावों में भारतीय मतदाताओं ने उसे पूरी तरह से खारिज कर दिया था। समय की कसौटी पर कुछ सच्चाइयाँ खरी उतरती स्पष्ट होती हैं तो कुछ नई अंतर्दृष्टियां भी प्राप्त होती हैं।
आपातकाल की उत्पत्ति स्पष्ट रूप से राजनीतिक नेतृत्व की तानाशाही से हुई, विशेष रूप से उस तानाशाही से जो ‘सही’ उपनाम के साथ लिए गए जन्म से आई। इस तरह के वंशवादी लोग इस भावना के साथ बड़े होते हैं कि सत्ता में रहना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है, और यदि ऐसा नहीं होता हैं तो वे प्रतिशोधी और तामसिक मानसिकता के साथ प्रतिक्रिया करते हैं तथा विनाश पर आमादा हो जाते हैं।
कांग्रेस का सत्तारूढ़ वंश हमेशा इसी पर चलता रहा है कि “मेरे कहे पर चलो नहीं तो मैं बर्बाद कर दूंगा”। जब राजनारायण मामले में भ्रष्टाचार के कारण श्रीमती इंदिरा गांधी की चुनावी जीत को न्यायालय ने निरस्त घोषित कर दिया तो उन्होंने लोकतांत्रिक ढांचे को ही नष्ट करने का फैसला कर लिया। सबसे अधिक संख्या में राज्य सरकारों को बर्खास्त करने का संदिग्ध रिकॉर्ड भी उनके नाम ही दर्ज है। राजीव गांधी द्वारा कर्नाटक में एक विधिवत निर्वाचित सरकार की अनुचित बर्खास्तगी के कारण ही न्यायालय का ऐतिहासिक एस आर बोम्मई फैसला आया।
उसी परिवार की वर्तमान पीढ़ी अब इस परंपरा को आगे बढ़ा रही है, जब वह वंशवाद के पीछे नहीं चलने वाले संस्थानों को नष्ट करने की प्रयास कर रही है। जब कांग्रेस चुनाव जीतती है तो ईवीएम अच्छी होती है, लेकिन कांग्रेस के हारने पर वही मशीन मोदी वोटिंग मशीन बन जाती है। अदालतें तब अच्छी होती हैं जब फैसले कांग्रेस के पारिस्थितिकी तंत्र के मुताबिक होते हैं, वरना जजों को डराया-धमकाया जाता है।
वंशवादी राजनीति की एक और बुराई है स्वतंत्रता की घोर अवहेलना करना। सब को और हर किसी को नियंत्रित करने की लालसा इसकी प्रेरणा होती है। पंडित नेहरू द्वारा मजरूह सुल्तानपुरी को जेल भेजने से लेकर हाल ही में मुंबई में एक निजी कार्यालय पर कांग्रेस सदस्यों द्वारा राहुल गांधी की पैरोडी करने वाले विज्ञापन के लिए किए गए हमले तक के संदेश हमेशा स्पष्ट रहे हैं कि वंश के खिलाफ कुछ मत कहो क्योंकि उसकी खाल बहुत पतली है!
परिवार और पार्टी के भीतर ‘समस्त सत्ता, और कोई जवाबदेही नहीं’ के जो लोग आदी हो जाते हैं वे जब सत्ता के करीब पहुंचते हैं तब आपातकाल या आपातकाल जैसी स्थिति अपरिहार्य हो जाती है। यही कारण है कि कांग्रेस शासित राज्यों में बिजली की कमी के बारे में लिखने या फोन टैपिंग विवादों के बारे में रिपोर्ट करने पर लोगों को जेलों में डाला जा रहा है, पुलिस को विपक्षी नेताओं तक को डराने के लिए लगाया जा रहा है जब तक कि अदालतें राजनीति से प्रेरित ऐसी जांच के लिए सरकार की निंदा नहीं करती।
अपनी ही पार्टी के भीतर भी वंशवाद किसी को नहीं छोडता। एक-एक करके हर उस व्यक्ति को जिसके पास कोई भी क्षमता है और जिसे एक खतरे के रूप में माना जाता है उसे पार्टी से बाहर कर दिया जाता है या किनारे कर दिया जाता है। जैसा कि हाल ही में कांग्रेस छोड़ने वाले असम के एक विधायक ने कहा कि एक वंशवादी खुद को ऐसे लोगों से घिरा रहना पसंद करता है जो उसकी अक्षमता के लिए खतरा नहीं होते।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि चुनावों में कांग्रेस पार्टी की ऐतिहासिक गिरावट के बाद ही भारत प्रगति के नए शिखर पर पहुंचने में कामयाब रहा है।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा आपातकाल को अंजाम देने वाली ताकतों के विरोध का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने न केवल आपातकाल के खिलाफ लड़ाई लड़ी बल्कि प्रगति के लिए भी खड़े रहे।
लंबे समय तक हमने केंद्र और राज्यों के बीच “बडा भाई ठीक कहता है” वाला रिश्ता देखा है। विभिन्न राज्यों की विविधता और उनकी स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में न रखते हुए ‘एक आकार सभी को फिट” बैठाने वाले दृष्टिकोण का उपयोग हमारे यहां वर्षों से किया जाता रहा है। ऐसे अतीत से नाता तोड़ते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने सर्वांगीण विकास के लिए सहकारी और प्रतिस्पर्धी संघवाद का लाभ उठाने की आवश्यकता पर जोर दिया है। अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने सुधारों को लागू करने और जीवन की सुगमता सुनिश्चित करने के लिए केंद्र और राज्यों को एक साथ आने के बारे में लिखा है। 14वें और 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों को लागू करने से लेकर राज्यों को केंद्रीय करों का 42% हिस्सा देने और जीएसटी परिषद की स्थापना और योजना आयोग को खत्म करने तक सहकारी संघवाद की भावना से राज्यों की आवाज सुनी गई है और उस पर अमल किया गया है। प्रधानमंत्री ने राज्यों के साथ कोविड महामारी के प्रबंधन में एक सहकारी दृष्टिकोण अपनाया। यहां तक ​​​​कि टीकाकरण की रणनीति भी बदल दी गई क्योंकि राज्यों ने इसके लिए कहा और जब उन्होंने यू-टर्न लिया तो उसे भी समायोजित किया गया।
आपातकाल के दौरान आलोचक जेलों में बंद थे और आज आलोचक – यहां तक ​​​​कि अनुचित आलोचक भी – प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री मोदी के काल में फल-फूल रहे हैं, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पा रहे हैं और उनकी आवाज सुनी जा रही है।
जबकि कांग्रेस अन्य दलों के नेताओं को डराने-धमकाने की कोशिश करती है, प्रधानमंत्री मोदी ने गुलाम नबी आजाद, मुलायम सिंह यादव या प्रकाश सिंह बादल जैसे विपक्षी नेताओं की गर्मजोशी से प्रशंसा की है, जो सभी राजनीतिक रूप से भाजपा विरोधी हैं।
नीति निर्माण और नीति कार्यान्वयन दोनों में लोगों की आवाज की अहमियत होती है। लोगों के फीडबैक के मुताबिक जीएसटी का लगातार समायोजन इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह स्पष्ट है कि सक्षमता और करुणा को महत्व देकर ही लोकतंत्र और विकास को मजबूत किया जा सकता है।
आपातकाल एक वंश-प्रवर्तित आपदा थी और यदि तानाशाही से प्रेरित वंशवादी राजनीति जारी रहती है, तो भारत पर बार-बार ऐसी और आपदाएं आएंगी। उनका रूप बदल सकता है, लेकिन मूल बना रहेगा।
*लेखक केंद्रीय मंत्री परिषद के सदस्य हैं