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लोकतंत्र बचाओ समागम जमशेदपुर की अपील लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा गठबंधन को हराकर लोकतंत्र की हिफाजत करें

लोकतंत्र बचाओ समागम जमशेदपुर की अपील
लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा गठबंधन को हराकर लोकतंत्र की हिफाजत करें

पिछले दस वर्षों के आरएसएस-भाजपा शासन में देश में लोकतंत्र की स्थिति पर गौर करें तो सचमुच एक भयानक तस्वीर सामने आएगी. लोकतंत्र खतरे में है, उसका गला वे ही घोंट रहे हैं, जिन्होंने लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की शपथ ली थी. लेकिन अच्छी बात है कि संसदीय विपक्षी दल और देश की जनता इस खतरे को महसूस करने लगे हैं और संघर्ष उत्तरोत्तर निर्णायक रूप लेता जा रहा है. यह माकूल समय है जब संगठित होकर मैदान में उतर जाएं और लोकतंत्र विरोधियों के मंसूबों को परास्त करें. अगर आज भी हम चुप रहे तो, इतिहास हमें माफ नहीं करेगा.

वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन के रथ पर सवार होकर सत्ता के शीर्ष पर पहुंची थी. उस समय उसने विदेशी बैंकों में जमा काला धन वापस लाने, प्रति वर्ष दो करोड़ रोजगार देने, महंगाई मिटाने और रामराज्य लाने जैसे हसीन सपने जनता को दिखाए थे. आज वे सारे सपने टूट गये हैं और आम जनता का जीवन बद से बदतर बन गया है.

इन सबसे ध्यान हटाने के लिए हिन्दू राष्ट्र का मुद्दा जोर-शोर से उठाया जा रहा है, मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों को विदेशी और देशद्रोही घोषित किया जा रहा है, गैरहिंदी राज्यों पर हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में जबरन थोपने और समान नागरिक संहिता लागू करने की साजिश रची जा रही है और देश को साम्प्रदायिक, भाषाई, जातीय और नस्लीय विद्वेष की आग में झोंका जा रहा है. इस प्रकरण का सबसे ताजा उदाहरण मणिपुर और हरियाणा का नूह है जिनको लेकर देश से विदेश तक आवाज उठ रही है.

यह वीभत्स स्थिति अचानक नहीं पैदा हुई. इस दिशा में काफी सोच समझकर कदम उठाये गये हैं. 2011-12 में जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे ने सत्ता विरोधी जन चेतना का आगाज किया था, आज वही लोकतंत्र की हत्या का हथियार बन गया है. इनकम टैक्स विभाग, सीबीआई और इडी विपक्षी सांसदों और विधायकों को डरा धमकाकर भाजपा में शामिल कराने के सबसे कारगर हथियार बन गये हैं. देश में परम्परा सी चल पड़ी है कि इन संस्थाओं की नोटिस के बाद नेता जैसे ही भाजपा में शामिल हो जाते हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई या तो बंद कर दी जाती है या ठंडे बस्ते में डाल दी जाती है.

इस प्रकार इडी विपक्षी सरकार गिराकर भाजपा की सरकार बनाने का मुख्य साधन बन गयी है. यह अकारण नहीं है कि इडी की 95% कार्रवाइयां विपक्षी नेताओं पर ही हुई हैं. इन कार्रवाइयों ने जनता के मतदान को कुछ हद तक निरर्थक बनाकर छोड़ दिया है. यह जनतंत्र का गला घोटने का एक रास्ता है. दूसरा रास्ता है विधायकों की खरीद फरोख्त. यह सब न सिर्फ किसी नेता या पार्टी पर हमला है, बल्कि उसके चुनाव क्षेत्र की जनता के लोकतांत्रिक अधिकार पर भी हमला है. इसके मद में खर्च होनेवाली करोड़ों की राशि कहाँ से आती है. निश्चय ही, पूंजीवादी आकाओं की तिजोरी से.

इस तरह की कार्रवाइयां पहले भी होती रही हैं, लेकिन मोदी राज में इसमें बेतहाशा वृद्धि हुई है. वैसे तो इस तरह की कार्रवाइयों के कई उदाहरण भरे पड़े हैं, लेकिन सबसे ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी की टूट और विधायकों के दलबदल में देखा जा सकता है.

मोदी सत्ता ने भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दे दिया है. 2018 में जारी चुनावी बांड ने पूंजीपतियों से विभिन्न पार्टियों को उपलब्ध चंदे की राशि को बिल्कुल अपारदर्शी बना दिया है जिसकी जानकारी सूचना के अधिकार के तहत भी नहीं ली जा सकती. वायर में प्रकाशित एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रेफॉर्म्स (एडीआर) के अंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2917-18 से 2021-22 के बीच चुनावी बांड से अकेले भाजपा को सभी सात राष्ट्रीय दलों को प्राप्त चंदा के तीनगुना से ज्यादा धन प्राप्त हुआ है. जाहिर है कि ये पूंजीपति इसी चंदे के बल पर सरकारी नीतियाँ अपने पक्ष में तय करवाते हैं. चुनावी बांड की यह अपारदर्शिता इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार की गंगोत्री बन गयी है. कुछ ऐसी ही बात वर्ष 2020 में निर्मित पीएम केयर्स फंड के बारे में भी कही जा सकती है.

पूंजीपतियों के प्रति भाजपा सरकार की इसी निष्ठा का नतीजा है कि उन्हें देश के प्राकृतिक संसाधनों और मजदूरों के श्रम की लूट की खुली छूट दी गयी है. सरकारी सम्पत्ति कौड़ी के मोल बेची जा रही है. इन सबका नतीजा हो रहा है कि देश में अमीरी और गरीबी के बीच खाई चौड़ी और गहरी होती जा रही है. लेकिन इसपर पर्दा डालने के लिए देश की अर्थव्यवस्था के दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की घोषणा हो रही है, तो दूसरी ओर उसके तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने के सपने बेचे जा रहे हैं. लेकिन इस विकास को मुंह चिढ़ाती दूसरी तस्वीर काफी डरावनी है. प्रतिव्यक्ति आय के मापदंड पर दुनिया में भारत का स्थान 128वां और एशिया ओर में 31 वां है. भारत का स्थान बेकारी, भुखमरी, कुपोषण, गरीब बच्चों में शिक्षा के अवसर का संकुचन, बाल मृत्यु दर, खुशी सूचकांक जैसे मानदंड पर हमारा देश पड़ोसी देशों देश से भी नीचे है. यह है देश में सम्पत्ति के संकेन्द्रन और रोजगारविहीन विकास की तस्वीर.

मोदी सरकार की नजर में इन सभी सवालों का एक ही जवाब है, हिन्दू राष्ट्र. इस दिशा में भी इस सरकार के पहले कार्यकाल से ही तैयारी शुरू हो गयी थी. अंधविश्वास उन्मूलन आंदोलन के कार्यकर्ताओं, वाम व लोकतान्त्रिक बुद्धिजीवियों की हत्या इनके पहले कदम थे. उसके बाद गौ मांस पर प्रतिबंध और गौ हत्या के खिलाफ मॉब लिंचिंग अभियान चला जिसका केंद्र मुख्यतः उत्तर प्रदेश और राजस्थान बने. हालांकि इसकी चिंगारी झारखंड में भी पहुंची थी और कोल्हान क्षेत्र भी कई तरह के संकीर्णतावादी संघर्ष का साक्षी बना था.

इसी क्रम में हिंदुत्वविरोधी जेएनयू और जामिया मिलिया जैसे ख्याति प्राप्त शिक्षण संस्थान भी इनके निशाने पर आए. बाबा साहेब अम्बेडकर का जाप करने वाले हिंदुत्ववादियों के हमलों से दलित भी नहीं बच पाये. इनमें आईआईटी मद्रास के अम्बेडकर-पेरियारवादी संगठन पर हमले, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमूला की आत्महत्या तथा ऊना में मरे जानवरों की खाल निकालने वाले दलितों की सार्वजनिक पिटाई काफी चर्चा में रहे. दलित शौर्य के प्रतीक भिमा कोरेगांव तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर उत्पीड़न का ऐतिहासिक प्रतीक बन गया है, जिसमें झारखंड के फादर स्टेन स्वामी की जेल में मौत तक हो गयी. कठुआ, हाथरस तथा उन्नाव जैसी घटनाओं ने इनके महिला विरोधी चरित्र को सबके सामने उजागर कर दिया. संक्षेप में कहें तो इनके हिंदुत्ववादी दर्शन की मनुवादी संस्कृति की राह के सारे अवरोधों को हटाने का प्रयास शुरू हो गया था. इसके बावजूद इन घटनाओं का देश के स्तर पर प्रभावी विरोध नहीं हुआ.

सरकार के दूसरे कार्यकाल में स्थिति बदलने लगी. जम्मू और कश्मीर से धारा 370 की वापसी तक विरोध महज सांकेतिक रहा, लेकिन सीएए और एनआरसी लाये जाने की घोषणा से देशव्यापी प्रभावशाली विरोध का दौर शुरू हुआ और सरकार बैकफुट पर गयी. इन कानूनों को वापस तो नहीं लिया गया है, लेकिन उसके लागू करने के नियम अभी तक नहीं बन पाये हैं. तीन कृषिकानूनों के खिलाफ दिल्ली बॉर्डर पर किसानों का एक साल का लम्बा धरना सरकार के खिलाफ संघर्ष का गेमचेंजर साबित हुआ. हालांकि इस संघर्ष में 700 से ऊपर किसान शहीद हुए, लेकिन सरकार को कानून रद्द करना पड़ा. इस संघर्ष में भी झारखंड के राजनीतिक दलों और विभिन्न जनसंगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

इसी उतार चढाव के साथ हम 2024 में लोकसभा चुनाव का सामना करने जा रहे हैं. झारखण्ड की 14 लोकसभा सीटों में 12 पर भाजपा का कब्जा हैं, वहीं कोल्हान की दो में एक सीट पर भाजपा काबिज है. इस राज्य के परिदृश्य को उलट देने की जरूरत है. परिस्थिति भी इसके अनुकूल है. राज्य में गैरभाजपा सरकार है, देश के स्तर पर विपक्षी गठबंधन (‘इंडिया’) बन चुका है, पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव में भाजपा का मतप्रतिशत गत विधानसभा की तुलना में काफी नीचे गिर चुका है और बिहार में भी उसकी स्थिति मजबूत नहीं है. फिर भी हम पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो सकते क्योंकि राज्य में कभी भी मणिपुर जैसी स्थिति पैदा करने की कोशिश हो सकती है या सांप्रदायिक दंगा भड़काया जा सकता है. इससे सतर्क और सावधान रहने की जरूरत है. राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में हिंदुत्ववादी प्रसार के खिलाफ सजग अभियान जरूरी है.

जमशेदपुर इस राज्य का औद्योगिक केंद्र है, लेकिन रांची, बोकारो व धनबाद जैसे अन्य केंद्रों की तरह यह सीट भी भाजपा के कब्जे में है. इन क्षेत्रों में कार्यरत अधिकांश ट्रेड यूनियन और वाम पार्टियां भाजपा विरोधी हैं, फिर भी इन सीटों पर भाजपा की जीत मजदूरों की पिछड़ी राजनीतिक चेतना का नतीजा है. भाजपा सरकार की मजदूर विरोधी कार्रवाईयों के आधार पर इस स्थिति को बदलने का अभियान चलाने की जरूरत है और यह संयुक्त प्रयास के तहत हो तो ज्यादा अच्छी बात होगी.

ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योगों के लिए जबरन भूमि अधिग्रहण तथा जंगल पर कब्जा जैसी सरकारी नीति के खिलाफ अतीत के संघर्ष को याद दिलाते हुए भाजपा के खिलाफ जन गोलबंदी की जरूरत है. हम यह नहीं भूल सकते कि राज्य की भाजपा सरकार ने पत्थरगड़ी अभियान को देशद्रोह घोषित कर दमन अभियान चलाया था. इसलिए लोकसभा चुनाव में भी ऐसी पार्टी की जीत झारखंड के विकास के लिए हानिकारक होगा.

समग्रता में कहें,तो समय की मांग है कि मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समूह और महिला संगठन एकजुट हों और एक मंच से ‘भाजपा हराओ, लोकतंत्र बचाओ’ के नारे के साथ आगे बढ़ें, शहर से गाँव तक इस संदेश को फैलाएं. भाजपा की पराजय सभी समस्याओं का हल नहीं है, लेकिन इसकी पराजय से उस दिशा में कदम बढ़ाने का व्यापक अवसर मिल सकता है और संघर्ष के रास्ते खुल सकते हैं. हम एकजुट हों और लोकतंत्र की रक्षा के लिए आरएसएस-भाजपा जैसी तानाशाह शक्तियों को परास्त करें.