झारखंड के वन प्रांतर क्षेत्र में मैथिली को प्रतिष्ठापित किया- भवप्रीतानंद ओझा
जमशेदपुर। साहित्य अकादमी नई दिल्ली की ओर से देवघर के सरदार पंडा और मैथिली के कवि-साहित्यकार रहे भवप्रीतानंद ओझा पर ऑनलाइन परिसंवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के उदघाटन सत्र में साहित्य अकादमी के उपसचिव एन सुरेश बाबू ने स्वागत भाषण किया। विषय प्रवर्तन करवाते हुए साहित्य अकादमी के मैथिली प्रतिनिधि व एलबीएसएम कालेज के प्राचार्य डॉ अशोक अविचल ने भवप्रीतानंद ओझा के समकालीन कवियों और तत्कालीन परिवेश का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि वे झारखंड के वन प्रांतर क्षेत्र में मैथिली का अलख जगाने वाले लोक कवि थे । बीज वक्तव्य देते हुए देवघर के पारस कुमार सिंह झा ने कहा कि वे झारखंड में मैथिली के प्रतिष्ठापक थे। अध्यक्षीय संबोधन दरभंगा के डॉ. प्रेम मोहन मिश्र ने किया।
संगोष्ठी के आलेख सत्र में सहरसा के विनय भूषण ने ‘भवप्रीतानंद ओझा के व्यक्तित्व और कृतित्व’ पर अपना विचार प्रस्तुत किया। बेंगलुरु से परमेश्वर झा ‘प्रहरी’ ने ‘भवप्रीतानंद साहित्य में भाषा और संस्कृति’ विषय पर अपना विचार रखते हुए ‘झूमर’ और ‘घैरा’ शैली में उनके पदों का विश्लेषण किया। मधुबनी के डॉ अरविंद कुमार सिंह झा ने ‘मैथिली साहित्य में भवप्रीतानंद ओझा के योगदान’ विषय पर अपना सारगर्भित आलेख प्रस्तुत किया। इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए एबीएम कालेज के मैथिली विभागाध्यक्ष डा. रवीन्द्र कुमार चौधरी ने कहा कि बाबा वैद्यनाथ मंदिर, देवघर में 1929 से 1970 तक सरदार पंडा रहे भवप्रीतानंद ओझा ने महाकवि विद्यापति के महेशवाणी और नचारी की तरह मैथिली लोकगीत ‘झूमर’ और ‘घेरा’ को नव स्वर दिया। भवप्रीतानंद साहित्य को कोल्हान विश्वविद्यालय समेत कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। झारखंड अलग राज्य गठन के लिए आजादी के बाद से ही भवप्रीतानंद ओझा ने गीत और कविता के माध्यम से आवाज बुलंद किया। उनकी जो गीत बहुत प्रसिद्ध हुए थे उनमें प्रमुख हैं- “सोन चिरैया हमर झारखंड” तथा “चलू पिया लड़ि कें लेबै झारखंड”।
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