झारखण्ड वाणी

सच सोच और समाधान

हर अवस्था में हर भावना में ब्रह्म को देखना, हर कर्म में ब्रह्म को देखना ही ब्रह्म सदभाव है परमपुरुष को अपना ध्येय बना लेना,इससे मनुष्य एक दिन परमपुरुष में मिलकर एकाकार हो जायगा

हर अवस्था में हर भावना में ब्रह्म को देखना, हर कर्म में ब्रह्म को देखना ही ब्रह्म सदभाव है परमपुरुष को अपना ध्येय बना लेना,इससे मनुष्य एक दिन परमपुरुष में मिलकर एकाकार हो जायगा

जमशेदपुर- आनंद मार्ग प्रचारक संघ, गदरा आनंद मार्ग जागृति में जिला स्तरीय तीन दिवसीय सेमिनार के अंतिम दिन “ब्रह्मसदभाव” विषय पर बोलते हुए आनंद मार्ग के वरिष्ठ पुरोधा आचार्य स्वरूपानंद अवधूत ने कहा कि ब्रह्मसद्भाव के सम्बन्ध में तन्त्र का कहना है:

“उत्मो ब्रम्हसर्भावो

मध्यम ध्यान धारणा

जपस्तुति स्याधमा

मूर्तिपूजा अध्मअध्म

अर्थात ब्रह्मसद्भाव है- सर्वोत्तम अवस्था, ध्यान धारणा है मध्यम अवस्था, जप स्तुति है अधम साधना और मूर्ति पूजा है- अधमाधम साधना । ब्रह्म सद्भाव है – सहजावस्था या सहज समाधि। हर अवस्था में हर भावना में ब्रह्म को देखना, हर कर्म में ब्रह्म को देखना ही ब्रह्म सदभाव है। परमात्मा का मन ही अपना मन हो जाता। अपना मन नहीं रहता ।

आचार्य जी ने बतलाया कि ब्रह्मचक्र में हर जीव धूम रहे हैं, वे अपन-अपना आजीव या आलम्बन लेकर घूम रहे हैं। अपने-अपने संस्कारों अर्थात प्रतिक्रियात्मक बीजों के अनुसार सभी चक्कर लगा रहे हैं। उन्होंने चार प्रकार के छोटे एवं बडे चक्रों का जिक्र किया- पहला है पारमाणविक संरचना जिसमें प्राणकेन्द्र के चारों तरफ विधुताणु घूम रहें है, दूसरा है- पार्थिव चक्र जिसके केन्द्र मे पृथ्वी है और चन्द्रमा उसके चारो तरफ घूम रहा है- तीसरा है सौरचक्र – जिसमें सूर्य प्राणकेन्द्र में है और सभी ग्रह उसके चारो ओर घूम रहे हैं और चौथा तथा सबसे बडा चक्र है ब्रह्मचक्र अर्थात जिसके प्राणकेन्द्र मे हैं पुरुषोत्म और सम्पूर्ण जगत व्यापार ( जड-चेतन) सम्पूर्ण जीव समूह उस पूरूषोत्म के चारो तरफ घूम रहें हैं, चक्कर लगा रहे हैं।

इस घुमने के क्रम में जब वे यह समझते रहते हैं कि वे और उनका प्रणकेन्द्र अलग नहीं है, वे समझने लगते हैं कि मैं परम पिता का अंग हूँ और मुझे उनसे मिलकर एकाकार हो जाना है तब वे परमपुरुष से मिलकर अमृत के महासिन्धु में विलीन हो जाते हैं। और तब सृष्ट जीव अमृतत्व पा जाते हैं। इसके लिए उनकी कृपा की आवश्यकता होती है। ऐसे लोग साधक होते हैं। दूसरे प्रकार के वे साधारण लोग हैं जो कहते हैं कि मैं पाप भी नहीं करता हूँ, साधना भजन भी करता हूँ, ऐसे लोग विद्या और अविद्या के सामंजस्य के कारण अनन्तकाल तक घूमते रहेगे, उनका घुमना कभी बन्द नहीं होगा। तीसरे प्रकार के वे मनुष्य है जिन्हे पापाचारी कह सकते हैं, वे अविद्या शक्ति को बढावा देगें- अत: केन्द्र से दूर हट जाएगे। ब्रह्मचक्र में दो प्रकार की शक्तियॉ काम करती हैं- विद्यामाया या केन्द्रानुगा शक्ति और अविद्यामाया या केन्द्रातिगा शक्ति। जबतक जीव के मन में यह बोध रहेगा कि मैं और मेरे भेजनेवाले, मैं और मेरे इष्ट दो पृथक सत्तायें है तबतक उनका घूमना बन्द नहीं होगा । हर अवस्था में हर भावना में हर कर्म में ब्रह्म को देखते रहने से अर्थात ब्रह्मसद्भाव से ही साधक का घूमना बन्द हो जायगा । वह देश काल पात्र के चक्कर से मुक्त हो जायगा। विद्या शक्ति की पहचान उसके संवि शक्ति एवं हलादिनी शक्ति से होती है और अविद्या शक्ति की पहचान उसके आवरणी शक्ति तथा विक्षेप शक्ति से होती है। दोनों का मन पर दो-दो प्रकार के प्रभाव पडते हैं। अविद्याशक्ति का प्रभाव मुख्यत: अष्टपाश और शडरिपु के द्वारा मानव मन पर पडता है। इनके प्रभाव से बचने का एकमात्र रास्ता है- ब्रह्मसद्भाव । अर्थात मन समर्पण करने की साधना, चरम दान की साधना । परमपुरुष को अपना ध्येय बना लेना। इससे मनुष्य एक दिन परमपुरुष में मिलकर एकाकार हो जायगा ।