झारखण्ड वाणी

सच सोच और समाधान

सा विद्या या विमुक्तये

सा विद्या या विमुक्तये
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एक रोचक अनुभव से अपनी बात शुरू करता हूँ। कुछ साल पहले हाई स्कूल के कुछ विद्यार्थी मेरे घर सरस्वती पूजा के लिए चन्दा करने आए। जैसा कि अमूमन होता है, समय के अनुरूप उन बच्चों ने कुछ ज्यादे रकम की माँग की। मैंने कहा तुमलोगों की बातें मुझे एक शर्त पर स्वीकार है यदि तुम में से कोई बच्चा सरस्वती माता के नाम का पाँच पर्यायवाची बता दो तो?

आश्चर्य हुआ कि वे बच्चे यह नहीं बता सके और फिर मैंने जो चन्दा में दिया लेकर चले गए क्योंकि वे वाग्देवी सरस्वती की सच्ची साधना से उन्हें विशेष लगाव नहीं था। यदि सच्ची साधना (पढ़ाई-लिखाई) करते तो मुझे सही उत्तर भी मिलता और उनलोगों को मुँहमाँगी रकम भी सरस्वती पूजन के लिए। दरअसल आज के हालात ऐसे बन ही गए हैं या बनाए गए हैं कि जो सरस्वती के सच्चे साधक होते हैं वे अक्सर गली मुहल्लों में, यत्र तत्र चन्दा इकट्ठा करके पूजा करते हुए दिखाई नहीं देते बल्कि माता की आराधना पुस्तकों में डूबकर करते हैं। खैर —

साहित्य -संगीत – कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती हिन्दु धर्म की प्रमुख देवियों में से एक है जिन्हें धर्म शास्त्रों में कहीं ब्रह्मा की “मानस – पुत्री” कहा गया है तो देवी भागवत में ब्रहमा की स्त्री भी कहा गया है साथ ही शारदा, शतरूपा, वाणी, वाग्देवी, वागेश्वरी, भारती आदि कई नामों से उन्हें जाना जाता है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि अन्य देशों में सरस्वती या विद्या की देवी को कई अन्य नामों से पुकारा जाता है – जैसे – बर्मा में – “थुराथाडी” या “तिपिटक मेदा”, चीन में – “बियानचाइत्यान”, जापान में – “बेंजाइतेन” तो थाईलैंड में – “सुरसवदी” आदि।

एक हाथ में पुस्तक, एक हाथ में वीणा, श्वेत कमल पर वास करनेवाली देवी सरस्वती श्वेत हंस पर सवार होकर विचरण करतीं हैं। ऐसी मान्यता है कि माघ शुक्ल पक्ष पंचमी (जिसे वसंत पंचमी भी कहा जाता है और इसी दिन से होली खेलने की शुरूआत भी हो जाती है) को सरस्वती का जन्म हुआ और सदियों से इसी दिन सरस्वती पूजा के रूप में मनाये जाने का चलन है। शिक्षा की गरिमा, बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है। अतः सभी शिक्षण संस्थानों में इसे समारोह पूर्वक मनाया जाता है और हम समवेत स्वर में उद्घोष करते हैं कि “तमसो मा ज्योतिर्गमय” ताकि ज्ञान रूपी प्रकाश की अधिकता से हम सब की पशुता मरे और उच्चतर मनुष्यता प्राप्ति की ओर हम सब नित्य अग्रसर हो सकें।

बचपन में एक नीति श्लोक पढ़ा करता था जो आज के प्रसंग मे बहुत समीचीन है कि –

“विद्या ददाति विनयम् विनयद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वा धनमाप्नोति धनात् धर्मः ततः सुखम्।।

आज के दुरूह और गलाकाट प्रतियोगिता वाले इस भौतिकतावादी युग में ऐसे नीति श्लोकों की महत्ता और बढ़ जाती है। अर्थ बिल्कुल सामान्य है पर मनुष्य होने के नाते इसका मनन करना आवश्यक है क्योंकि अपने आप में “मनन” करके ही “मनुष्य” बनने की सार्थकता संभव है। विद्या सर्वप्रथम विनयशीलता देती है और विनम्रता से “पात्रता” आती है। पात्रता अर्थात पात्र (बर्तन) बनना। पात्रता आते ही धन का आगमन फिर धर्म और सुख की कामना।

यदि गौर से सोचें तो प्रायः सभी के जीवन का यही लक्ष्य भी होता है। यह भी सत्य है कि वैज्ञानिक विकास के साथ शिक्षा के आयाम, संसाधन, संस्थान आदि पहले के वनिस्पत प्रचूर मात्रा में बढ़ हैं और इसके साथ साथ शिक्षार्थियों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है किन्तु क्या उसी अनुपात में विनयशीलता बढ़ी है? यह मौलिक प्रश्न हमारे आपके सामने मुँह बाये खड़ा है।

हम सबका प्रत्यक्ष अनुभव तो यही है कि ऊँची डिग्री प्राप्त करके भी अधिकतर लोग विनयशील नहीं हैं और सामान्य डिग्रियों वाले का फिर कहना ही क्या? विनम्रता का अभाव शिक्षा का मूल उद्येश्य ही समाप्त कर देता है। फिर कहाँ से पात्रता, काहे का धर्म और कैसा सुख?

संस्कृत का एक सूत्र – वाक्य “सा विद्या या विमुक्तये” मुझे हमेशा प्रेरित करते रहता है। विद्या हम उसे ही कह सकते हैं जो हम सबको जीवन के बंधनों से आज़ाद करे, मुक्त करे। कई उलझनों में उलझा हम सबका जीवन नित्य जीवन में व्याप्त बंधनों से मुक्ति की माँग करता है और हम सब अपने अपने प्राप्त ज्ञान के आधार पर उसे सुलझाते भी हैं और यह सुलझाने की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है ताकि जिन्दगी आसान बन सके।

आज के इस विद्रूप भोगवादी और भौतिकतावादी युग में, जहाँ समाज में विनम्रता की जगह उदण्डता बढ़ी है, जरूरत है सरस्वती की सच्ची उपासना, सही अर्थों में ज्ञानार्जन तथा उसके दैनिक उपयोग की ताकि यह समाज हम सब के साथ साथ अगली पीढ़ी के लिए भी जीने लायक रह सके।

और अन्त में सरस्वती माता के वरद्-पुत्र माने जाने वाले सूर्यकान्त त्रपाठी “निराला” जी, जिनका जन्म दिवस भी वसंत पंचमी को ही मनाया जाता है, की यादों को नमन करते हुए उन्हीं के द्वारा रचित सरस्वती वन्दना की दो पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूँ ।

नव गति, नव लय, ताल छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद मंद्र रव।
नव नभ के नव चिहग-वृन्द को नव पर नव स्वर दे।
वीणा वादिनी वर दे।।

श्यामल सुमन