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अनुराग कश्यप

फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप ने 'फ़िल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज़्म' की चर्चा पर यह सवाल उठाया है कि 'जब फ़िल्म इंडस्ट्री में न्याय-अन्याय की बात होती है तो चर्चा सिर्फ़ अभिनेताओं तक केंद्रित क्यों रह जाती है? जबकि एक फ़िल्म को बनाने में सौ से अधिक लोग अपना ख़ून-पसीना बहाते हैं.

अनुराग कश्यप: न्याय-अन्याय की चर्चा सिर्फ़ अभिनेताओं तक केंद्रित क्यों ?

फ़िल्म निर्देशक अनुराग कश्यप ने ‘फ़िल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज़्म’ की चर्चा पर यह सवाल उठाया है कि ‘जब फ़िल्म इंडस्ट्री में न्याय-अन्याय की बात होती है तो चर्चा सिर्फ़ अभिनेताओं तक केंद्रित क्यों रह जाती है? जबकि एक फ़िल्म को बनाने में सौ से अधिक लोग अपना ख़ून-पसीना बहाते हैं.’

दरअसल, फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद से ही सोशल मीडिया पर ‘फ़िल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज़्म’ यानी भाई-भतीजावाद को लेकर चर्चा चल रही है.

कंगना रनौत समेत कुछ अन्य कलाकार जो ख़ुद को ‘फ़िल्म इंडस्ट्री में बाहरी’ बताते हैं, वो खुलकर इस विषय पर बोल रहे हैं.

इनकी दलील है कि ‘जिनके माँ-बाप फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े नहीं रहे, उन्हें फ़िल्मों में अपनी जगह बनाने के लिए ज़्यादा संघर्ष करना पड़ता है और बहुत बार दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है.’
“मित्रों, ग़ज़ब डिबेट चल रही है. फ़िल्मों में सिर्फ़ अभिनेता नहीं होते. एक फ़िल्म के सेट पर कम से कम 150 लोग काम करते हैं. अंदर वाले या बाहर वाले. जिस दिन सेट पर काम करने वाले असिस्टेंट्स (सहयोगियों) और स्पॉटबॉय जैसे कर्मचारियों और बाक़ी सब इंसानों को इज़्ज़त देना सीख जाएंगे तब उनसे बात की जा सकती है.

चाहे वो बात ‘नेपोटिज़्म’ के बारे में हो या फिर ‘फ़ेवरेटिज़्म’ यानी पक्षपात के बारे में हो. पहले इन सेट पर काम करने वालों से ज़रा एक बार पूछ लो कि कौनसा अभिनेता या निर्देशक या कोई भी, कौन सबसे ज़्यादा बदतमीज़ है या किस अभिनेता के नाम से वो उस फ़िल्म में काम करने से मना कर देते हैं.

फिर जाकर उन अभिनेताओं के सेट्स पर, जहाँ जब कमान तथाकथित अभिनेता के हाथ में आ जाती है, उस फ़िल्म के सपोर्टिंग अभिनेताओं के पुराने इंटरव्यू पढ़ लो कि वो क्यों फ़िल्म छोड़ कर गये थे. तुम जैसा दूसरों के साथ रहोगे, वैसा ही वापस भी मिलेगा.

एक फ़िल्म बनाने में ख़ून और पसीना सौ से ऊपर लोगों का होता है. लेकिन न्याय-अन्याय की बात सिर्फ़ वो ही क्यों करता है जिसको फ़िल्मों से सबसे ज़्यादा मिलता है सच समझना है तो समाज के हर गड्ढों में झांकना पड़ेगा कि कितना गहरा है और उसमें कितना काला है. फ़िल्मी दुनिया सिर्फ़ दिखती और छपती ज़्यादा है लेकिन यह किसी और दुनिया से अलग नहीं है. मेरे साथ भी 24 सालों में बहुत लोगों ने बहुत कुछ किया है. अंदर वालों ने और बाहर वालों ने, दोनों ने. लेकिन मुझे कभी कोई ज़रूरत ही नहीं रही उनके प्रमाण की या उनकी सराहना की.

आपको और आपके काम को जब दुनिया सराहती है तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कोई दो या तीन लोग नहीं सराहें. क्यों किसी को इतनी ताक़त देनी कि उनकी हाँ या ना या एक शाबाशी से ही हमारा वजूद बने. एक आदमी की तारीफ़ काफ़ी है, आपको काम करते रहने के लिए.

चलो बस आज मुझे भी ‘मन की बात’ करने का मन हुआ साथियों, तो मैंने कर दी. बाक़ी नई-नई गालियों के साथ रिप्लाई करें तो अच्छा होगा. अगली फ़िल्म लिख रहा हूँ – ‘गैंग्स ऑफ़ Parlia… ‘. डायलॉग्स को लेकर काफ़ी अटका हुआ हूँ. धन्यवाद.”