झारखण्ड वाणी

सच सोच और समाधान

क्यों करते हैं अस्थि विसर्जन और क्या है नियम

सिद्धार्थ ठाकुर: बहुत दिनों से मन में एक बात बार-बार प्रश्न बनकर घूम रही थी। आखिरकार मृत शरीर का अंतिम संस्कार क्यों किया जाता है? मैं जिस धर्म से संबंध रखती हूं वहां शास्त्रों के अनुसार मृत शरीर को दफनाने का नहीं बल्कि जलाने का रिवाज़ है। इसलिए मन में यह सवाल आता है कि क्यों हम अंतिम संस्कार जैसी रीति को निभाते हैं?

अस्थि विसर्जन का कारण?

और यदि निभाते भी हैं तो उसके बाद शरीर की बची हुई राख को हम गंगा या अन्य किसी पवित्र नदी में क्यों बहा देते हैं? वह संबंधी जो अब इस दुनिया में नहीं रहा उसके जाने के बाद भी हमारा उसके साथ कहीं ना कहीं मोह बंधा रहता है। इसलिए कभी-कभी मन में आता है कि उनके जाने के बाद शायद उनकी जली हुई राख ही उनकी एक आखिरी निशानी है।

अगर उसे भी हम नदी में बहा दें तो हमारे पास क्या बचता है? लेकिन रिवाज़ तो रिवाज़ है… जिसे हमें निभाना ही है। हमारी संस्कृति ही हमें शास्त्रीय बातों को जीवन में अमल करने का पाठ पढ़ाती है। लेकिन अपने इस प्रश्न का जवाब खोजते हुए अचानक मैं एक कहानी पर आकर रुक गया।

जवाब की चाह में मेरा परिचय एक ऐसी कहानी से हुआ, जिसने मेरे लिए अंधेरे में एक दीपक का काम किया। यह कहानी अति प्राचीन काल के एक ऐसे व्यक्ति की है जो काफी निर्दयी था। उसने जीवन भर ना तो कोई अच्छा कार्य किया था और ना ही वह करना चाहता था।
वह अपने परिवार वालों के साथ अन्य कई लोगों को परेशान करता। उसके जीवन में शायद पुण्य नामावली का कोई अर्थ ही नहीं था, इसलिए वह केवल पाप ही कमाता था। एक दिन अचानक वह पास के एक जंगल में गया जहां एक बाघ का शिकार बन गया।

उसके मरने के तुरंत बाद ही यमराज के कुछ सेवक उसकी आत्मा को लेने वहां पहुंच गए और सीधे यमलोक ले गए। अब वहां कुछ बचा था तो उसका मृत शरीर जिसे काफी हद तक तो बाघ ही खा गया लेकिन बचा हुआ कुछ हिस्सा अन्य छोटे जानवरों का भोजन बना।
इसी बीच कुछ उड़ने वाले जीव भी भोजन की तलाश में उस मृत शरीर के पास पहुंचे। अचानक एक जीव हड्डी के एक टुकड़े को अन्य जीवों से छिपाता हुआ आकाश में उड़ गया, लेकिन उसके ठीक पीछे दूसरा जीव भागा और दोनों में उस हड्डी के एक टुकड़े को हासिल करने का संघर्ष होने लगा।

इसी बीच यमलोक का दृश्य कुछ और ही था। वहां यमराज के सेवक चित्रगुप्त द्वारा उस व्यक्ति के पापों का हिसाब लगाया जा रहा था। चित्रगुप्त एक-एक करके यमराज को व्यक्ति के पापों का ब्योरा दे रहे थे, जिसके आधार पर उसे विभिन्न नर्क हासिल होने की आशंका जताई जा रही थी।

तभी अचानक धरती लोक पर जहां उस व्यक्ति के मृत शरीर की हड्डी के लिए वह दो जीव लड़ रहे थे, अचानक उनके मुंह से वह हड्डी गिर गई और सीधा गंगा नदी में जाकर गिरी। गंगा नदी में हड्डी के पवित्र होते ही उस इंसान के सारे पाप धुल गए।और उसे मिलने वाले नर्क की सज़ा माफ कर दी गई।

गंगा नदी जो कि भगवान शिव की जटाओं से निकलकर धरती लोक पर आई हैं, उनकी पवित्रता शिवजी के नाम से जुड़ने से ही बन जाती है। इसलिए धरती लोक में सबसे पूजनीय नदी ही गंगा है, जिसमें स्नान करने से ही सभी पाप मुक्त हो जाते हैं ऐसी मान्यता बनी हुई है।
वैसे केवल कहानी ही नहीं, साथ ही हिन्दू धर्म के कुछ महान ग्रंथों में भी अस्थि विसर्जन के आख्यान पाए गए हैं। शंख स्मृति एवं कर्म पुराण में गंगा नदी में ही क्यों अस्थि विसर्जन करना शुभ है, इसके तथ्य पाए गए हैं। इस नदी की पवित्रता को दर्शाते हुए ही वर्षों से अस्थियों को इसमें विसर्जित करने की महत्ता बनी हुई है।

आइये अब जानते है गंगा में अस्थि विसर्जन का रहस्य क्या है…..

आत्मा की शान्ति
व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसका अंतिम संस्कार किया जाता है इसके पश्चात उसकी अस्थियों को गंगा जी में विसर्जित किया जाता है ऐसी मान्यता है की गंगा जी में अस्थियाँ विसर्जित करने से व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है।

गंगा जी में अस्थियाँ विसर्जित करना होता है शुभ 
हिन्दू धर्म शास्त्रों और पुराणों में बताया गया है की व्यक्ति की अस्थियाँ यदि गंगा जी में विसर्जित की जाती है तो वह बहुत शुभ होता है।

पापों का नाश 
गंगा जी को पाप नाशनी के नाम से भी जाना जाता है यदि व्यक्ति की अस्थियों का विसर्जन गंगा जी के मुख्य स्थान हरिद्वार, प्रयाग, गया आदि जगहो पर किया जाता है तो उस  व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते है किन्तु अस्थि विसर्जन की क्रिया पूरे विधि विधान से की जाना चाहए।

अस्थि विसर्जन की वैज्ञानिक मान्यता 
वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार गंगा नदी से कई मीलों की भूमि की सिचाई की जाती है और इन भूमियों को उपजाऊ बनाया जाता है जिससे नदी की उपजाऊ क्षमता धीरे धीरे समाप्त होने लगती है किन्तु इसमें अस्थियों के विसर्जन से फास्फोरस युक्त खाद की सदा बनी रहती है।

क्यो अस्थि विसर्जन पुत्र के हाथों ही होना शुभ माना जाता है

इस प्रश्न का जवाब हमें सूत्र ग्रंथों में देखने को मिलता है।तदनुसार अस्थि विसर्जन का कार्य शवदाह के प्रथम, तीसरे, सातवें या नवें दिन किया जाना चाहिए। गरुड़ पुराण ( प्रेतखण्ड 5.15 ) इनके अतिरिक्त तेरहवे व पंद्रहवे दिन को भी मान्यता प्रदान करता है, पर द्विजों के लिए चौथा दिन श्रेष्ठ माना गया है।

वैसे तो अस्थि विसर्जन परिवार का कोई भी सदस्य कर सकता है । पर मृत व्यक्ति के बेटे द्वारा  विसर्जित करना उचित होता है क्योंकि अस्थि विसर्जन के कुछ नियम कायदे  है। जैसे कि जो व्यक्ति अस्थि को विसर्जित करने ले जाता है उसका शुद्ध होना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। उस दौरान उसके खाने पीने से लेकर नित्य क्रिया पर भी प्रतिबंध रहता है। अस्थि विसर्जन की यात्रा के दौरान इन नियमों का पालन करना कठिन होता है। इसीलिए शास्त्रों में कहा जाता है कि पुत्र के हाथों ही विसर्जित करना उत्तम है क्योंकि मृत आत्मा उन नियमों का उचित पालन नहीं होने पर क्रोधीत होती है। मृत आत्मा के श्राप से पूरे कुल का नाश होता है। यही कारण है की पुत्र के हाथों ही अस्थि विसर्जत करने भेजा जाता है। जिस से की कुछ गलती होने पर भी मृत आत्मा के श्राप से बचा जा सके।