कब दोगे तुम मरहम साहिब?
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दिखा रहे पीड़ा कम साहिब!
बुद्धू क्या दिखते हम साहिब?
विज्ञापन में हँसी ख़ुशी यूँ,
लगता कहीं नहीं गम साहिब।
जख्म हज़ारों सहतीं जनता,
कब दोगे तुम मरहम साहिब?
करते जुल्मी, ज़ुल्म कहीं तो,
होतीं हैं ऑंखें नम साहिब!
यूँ बतियाते, पिछलग्गू सब,
मानो, पी हो चीलम साहिब!
तख्त बिठाकर वही उतारे,
जनता में इतना दम साहिब।
तलवारों से अधिक सुमन की,
अभी कलम में दमखम साहिब।
श्यामल सुमन
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