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भाई-बहन के परस्पर प्रेम का प्रतीक रक्षाबंधन की पौराणिक कथाएँ

यह पर्व भाई-बहन के रिश्तों की अटूट डोर का प्रतीक है। रक्षा बंधन का उल्लेख हमारी पौराणिक कथाओं व महाभारत में मिलता है और इसके अतिरिक्त इसकी ऐतिहासिक व साहित्यिक महत्ता भी उल्लेखनीय है।

राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।

रक्षा बंधन का पर्व विशेष रुप से भावनाओं और संवेदनाओं का पर्व है। एक ऎसा बंधन जो दो जनों को स्नेह की धागे से बांध ले। पुराणों के अनुसार आप जिसकी भी रक्षा एवं उन्नति की इच्छा रखते हैं उसे रक्षा सूत्र यानी राखी बांध सकते हैं, चाहें वह किसी भी रिश्ते में हो। रक्षा बंधन को भाई – बहन तक ही सीमित रखना सही नहीं होगा। बल्कि ऎसा कोई भी बंधन जो किसी को भी बांध सकता है। भाई – बहन के रिश्तों की सीमाओं से आगे बढ़ते हुए यह बंधन आज गुरु का शिष्य को राखी बांधना, एक भाई का दूसरे भाई को, बहनों का आपस में राखी बांधना और दो मित्रों का एक-दूसरे को राखी बांधना, माता-पिता का संतान को राखी बांधना हो सकता है।

रक्षा बंधन के महत्व को समझने के लिये सबसे पहले इसके अर्थ को समझना होगा। “रक्षाबंधन ” रक्षा+बंधन दो शब्दों से मिलकर बना है। अर्थात एक ऎसा बंधन जो रक्षा का वचन लें। आज के परिपेक्ष्य में राखी केवल बहन का रिश्ता स्वीकारना नहीं है अपितु राखी का अर्थ है, जो यह श्रद्धा व विश्वास का धागा बांधता है। वह राखी बंधवाने वाले व्यक्ति के दायित्वों को स्वीकार करता है। उस रिश्ते को पूरी निष्ठा से निभाने की कोशिश करता है।

राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन पौराणिक कथाओं, पुराणों व महाभारत में इसका कई उल्लेख मिलता है।

राजा बलि की कथा

सबसे पहली कथा में भगवान विष्णु से संबंधित है, जिसके अनुसार राजा बालि ने जब 110 यज्ञ पूर्ण कर लिए तब देवताओं का डर बढ़ गया। उन्हें यह भय सताने लगा कि यज्ञों की शक्ति से राजा बलि स्वर्ग लोक पर भी कब्ज़ा कर लेंगे, इसलिए सभी देव भगवान विष्णु के पास स्वर्ग लोक की रक्षा की फरियाद लेकर पहुंचे। जिसके बाद विष्णुजी ब्राह्मण वेष धारण कर राजा बलि के समझ प्रकट हुए और उनसे भिक्षा मांगी। भिक्षा में राजा ने उन्हें तीन पग भूमि देने का वादा किया। लेकिन तभी बलि के गु्रु शुक्रदेव ने ब्राह्मण रुप धारण किए हुए विष्णु को पहचान लिया और बलि को इस बारे में सावधान कर दिया किंतु राजा अपने वचन से न फिरे और तीन पग भूमि दान कर दी।

इस दौरान विष्णुजी ने वामन रूप में एक पग में स्वर्ग में और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। अब बारी थी तीसरे पग की, लेकिन उसे वे कहां रखें? वामन का तीसरा पग आगे बढ़ता हुआ देख राजा परेशान हो गए, वे समझ नहीं पा रहे थे कि अब क्या करें और तभी उन्होंने आगे बढ़कर अपना सिर वामन देव के चरणों में रखा और कहा कि तीसरा पग आप यहां रख दें। इस तरह से राजा से स्वर्ग एवं पृथ्वी में रहने का अधिकार छीन लिया गया और वे रसातल लोक में रहने के लिए विवश हो गए। कहते हैं कि जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। इस वजह से मां लक्ष्मी, जो कि विष्णुजी की अर्धांगिनी थी वे परेशान हो गईं।

भगवान के रसातल निवास से परेशान लक्ष्मी जी ने सोचा कि यदि स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे राखी बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आईं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा थी, उस दिन से ही रक्षा-बंधन मनाया जाने लगा। आज भी कई जगहे इसी कथा को आधार मानकर रक्षाबंधन मनाया जाता है।

भविष्य पुराण की कथा

दूसरी कथा भविष्य पुराण की है जिसके अनुसार प्राचीन काल में एक बार बारह वर्षों तक देवासुर संग्राम होता रहा, जिसमें देवताओं की दानवों से हार हो रही थी। दुःखी और पराजित इन्द्र, गुरु बृहस्पति के पास गए। कहते हैं उस समय वहां इन्द्र की पत्नी शुचि भी मौजूद थीं। इन्द्र की व्यथा जानकर इन्द्राणी ने कहा, “हे स्वामी! कल ब्राह्मण शुक्ल पूर्णिमा है। मैं विधानपूर्वक रक्षासूत्र तैयार करूंगी, उसे आप स्वस्तिवाचन पूर्वक ब्राह्मणों से बंधवा लीजिएगा। आप अवश्य ही विजयी होंगे।“ दूसरे दिन इन्द्र ने इन्द्राणी द्वारा बनाए रक्षाविधान का स्वस्तिवाचन पूर्वक बृहस्पति से रक्षाबंधन कराया, जिसके प्रभाव से इन्द्र सहित देवताओं की विजय हुई। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।

महाभारत की कथा

यह कथा महाभारत युग से जुड़ी है। महाभारत में कृष्ण ने शिशुपाल का वध अपने चक्र से किया था। शिशुपाल का सिर काटने के बाद जब चक्र वापस कृष्ण के पास आया तो उस समय कृष्ण की उंगली कट गई भगवान कृष्ण की उंगली से रक्त बहने लगा। यह देखकर द्रौपदी ने अपनी साडी़ का किनारा फाड़ कर कृष्ण की उंगली में बांधा था, जिसको लेकर कृष्ण ने उसकी रक्षा करने का वचन दिया था। इसी ऋण को चुकाने के लिए दु:शासन द्वारा चीरहरण करते समय कृष्ण ने द्रौपदी की लाज रखी। तब से ‘रक्षाबंधन’ का पर्व मनाने का चलन चला आ रहा है।

रानी कर्णावती और हमायूँ की कथा

मध्यकालीन इतिहास में भी ऐसी ही एक घटना मिलती है। चित्तौड़ की हिन्दू रानी कर्णावती ने दिल्ली के मुग़ल बादशाह हुमायूं को अपना भाई मानकर उसके पास राखी भेजी थी। हुमायूँ ने उसकी राखी स्वीकार कर ली और उसके सम्मान की रक्षा के लिए गुजरात के बादशाह बहादुरशाह से युद्ध किया। महारानी कर्णावती की कथा इसके लिए अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसने हुमायूँ को राखी भेजकर रक्षा के लिए आमंत्रित किया था। रानी कर्णावती ने सम्राट हुमायूँ के पास राखी भेजकर उसे अपना भाई बनाया था। सम्राट हुमायूँ ने रानी कर्णावती को अपनी बहन बनाकर उसकी दिलो – जान से मदद की थी।