झारखण्ड वाणी

सच सोच और समाधान

आम आदमियों का क्या हश्र होगा?

जिस शख्स की मौत एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल में जाने के दौरान हो जाती है। परिजन शव को शीतगृह में रखवाना चाहते हैं। जमशेदपुर के प्रतिष्ठित अस्पाल यानी टाटा मेन हाॅस्पिटल यह नियम बताकर शव को शीतगृह में रखने के लिए इंकार कर देते हैं कि मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं है। और शुरू हो जाता है मृत को मृत साबित करने का जद्दोजिहद। 70 वर्षीय मृतक की पत्नी और उसकी बेटी की आंखों में अजीब सी विवशता तैरने लगती है। क्योंकि वे मृत को मृत साबित नही कर सकते हैं। मृत को मृत केवल चिकित्सक ही साबित कर सकते हैं। कोविड इतर किसी अन्य बीमारी से मरे मृतक का मृत्यु प्रमाण कोई परिवारिक चिकित्सक कर सकते हैं पर कोविड के कारण मरे मृतक का प्रमाण पत्र जारी करना हर चिकित्सक की बूते की बात नही है।
कानून और नियमों की पेचदगी का आलम है यह। टाटा मेन हाॅस्पिटल मृतक को आपातकालिन चिकित्सा प्रक्रिया में मृतक को आठ घन्टे तक रखा। परिजनों को लगातार उम्मीद दिया कि वेन्टीलेटर की सुविधा जल्द ही दी जायेगी। परिजन कोविड पीड़ित के बेहतर ईलाज की उम्मीद पर वहीं टिके रहते हैं मरीज की स्थिति निरन्तर बिगड़ती चली जाती है। अन्ततः मरीज के लिए बेन्टीलेटर की सुविधा उपलब्ध नही होती। हाॅस्पिटल के अभिनय प्रवीण चिकित्सक आते हैं और बहुत ही नपे-तुले लहजे में परिजनों से कहते हैं ‘‘साॅरी अब तक वेन्टीलेटर उपलब्ध नही हो सका, मरीज की स्थिति नाजुक है,आप सब इन्हे कहीं और ईलाज कराईए।
परिजनों की स्थिति काटो तो खून नही वाली हो जाती है। मरीज नेमोनिया से पीड़ित थे,उन्हे सांस लेने में बहुत तकलीफ हो रही थी। मरीज लगभग जीवन – मृत्यु के सीमारेखा सांसें गिन रहे थे,जिसका आभास परिजनों को लगातार हो रहा था। कोविड पीड़ितों का ईलाज हर जगह हो भी तो नही रही है परिजन कहां जाए, कहां ईलाज कराएं? अन्ततः सिविल सार्जन के माध्यम से टाटा मोटर्स द्वारा संचालित कोविड विशेष वेन्टीलेटर युक्त अस्थायी कोविड अस्पताल जो परिवार कल्याण संस्थान में बना है में एक वेन्टीलेटर कक्ष बुक होता है। परिजन फौरन ही उक्त अस्पताल की ओर निकल पड़ते हैं। परिजन लगातार मरीज को वेन्टीलेटर उपलब्ध कराने का गुहार करते हैं, मरीज एम्बुलेंस में तड़पते रहता है पर मरीज को वहां भी वेन्टीलेटर नही मिल पाता है। लगभग आधे घन्टे तक बाहर प्रतीक्षा पंक्ति में रखने के बाद मरीज को वहां के चिकित्सीय दल आनन-फानन में अस्तपाल के भीतर ले जाते हैं और कुछ समय वहां के अभिनय प्रवीण चिकित्सक वहीं नपे-तुले लहजे में डिक्शनरी के सबसे आसान शब्द कहते हैं ‘‘ साॅरी ‘‘ मरीज मर चुका है। परिजन मृत्यु प्रमाण पत्र की मांग करते है तो यह कह कर चलता कर दिया जाता है कि मृतक ईलाज के क्रम में दम नही तोड़ा है। यह तो बीच मार्ग में मर चुका था जबकि मृतक आधे घन्टे तक बाहर में वेन्टीलेटर की प्रतीक्षा कर रहा था।
एक बड़ा सवाल यह है कि मृतक अपने दुर्भाग्य के कारण काल के ग्रास में गये या अस्पतालों के लचर कार्यपद्धति के कारण असमय मृत्यु के गोद में सो गये?
किसी कोविड पीड़ित के साथ यह कोई पहली घटना है इसी तरह की घटनाएं और भी हुई होगी? यह जाॅच का विषय हो सकता है।
जिस शख्स की मृत्यु इस तरह हुई अगर आप उसके बारे में जानेंगे तो या अन्दाजा आसानी से लगा सकते है कि आम आदमी के साथ क्या हो रहा होगा?
दरअसल जिस शख्स की मृत्यु हुई है वह जमशेदपुर बार एसोसिएशन के वरिष्ठ अधिवक्ता स्व0 गिरजा शंकर जयसवाल थे जो सामाजिक संस्था फ्री लीगल एड कमिटि के महासचिव थे। ये वही संस्था है जो 1999 में डायन प्रथा प्रतिशोध अधिनियम कानून बनवाए और बिहार में लागू भी करवाए जिसका मसौदा स्व0 जयसवाल ने ही तैयार किया था। बाद में झारखंड अलग राज्य स्थापित के बाद झारखंड के सरकार ने भी अंगीकृत की। मृतक की पत्नी जमशेदपुर की प्रतिष्ठित समाज सेविका और पूर्व बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष श्रीमती प्रभा जयसवाल हैं।
श्रीमती प्रभा जयसवाल जिले के उपायुक्त सूरज कुमार के पैरवी के आधार पर अपने पति का शव टाटा मेन हास्पिटल के शीतगृह में रखवा पाई। ऐसी परिस्थिति में आम आदमियों का क्या हश्र होगा? कल्पना से परे है।